नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. फल-विक्रयिणी
वह पुकार रहा था- 'दादा! भद्र! तोक! मैं फल लाया हूँ। सुन्दर मीठे फल।' ऐसे पुकार रहा था जैसे सारी सृष्टि को सब फल सदा ऐसे ही पुकार कर देता रहा है। मैंने टोकरी सिर पर धरी और लौट पड़ी। मेरे प्राणों में उसका वह मुझे 'माँ!' कहना, उसका वह स्पर्श बस गया। वह तो अब भी मुझे अपने अंक में ही बैठा दीखता है। वही सुन्दर अलकों से घिरा चन्द्र-मुख तनिक ऊपर उठाये! पता नहीं क्या हो गया था। वह मेरी ख़ाली टोकरी मुझे बहुत भारी लगने लगी। मैं सम्भवत: बहुत थक गयी थी। मुझे अब टोकरी का करना क्या था। इस सुन्दर व्रजराज कुमार को फल दे चुकी, अब और किसी के लिए मेरे कर फल इकट्ठा करने में नही लगेंगे। अब किसी दूसरे के द्वार मेरे पद नहीं जा सकेंगे। अब मुझसे 'फल ले लो!' की पुकार नहीं हो सकेगी। मैंने टोकरी फेंक दी यमुना के प्रवाह में। मेरी टोकरी में-से बहुत-से चमकते रत्न सूर्य की रश्मि में प्रकाश देते छप करते गिरे हों- ऐसा क्षण भर को मुझे लगा। रत्न ही गिरे होंगे। अब मुझे लगता है कि उनके भार से ही टोकरी उतनी भारी हो गयी थी। अच्छा हुआ, उन्हें फेंक दिया। टोकरी लाती तो व्यर्थ उन पत्थरों का भार ढोती। अपनी कुटिया में पहुँची तो देखा कि उसमें मेरे सो रहने को कठिनाई से स्थान रहा है। मेरी झोपड़ी में एक कोना भरा है रत्नों से और पूरी झोपड़ी में अन्न की राशि ऊपर तक लगी है। मैंने पुलिन्द-पल्ली के सभी को कह दिया- 'सब उठा ले जाओ जितना जी चाहे।' सब ले गये ढो-ढोकर और मेरी झोपड़ी तो रिक्त ही नहीं होती है। नन्दराय का वह लाल- अरे, मेरा लाल! यह अंक में बैठा मेरा नवघन-सुन्दर लाल पता नहीं कैसा पारस है। मैं गोकुल फिर गयी-फिर गयी-फिर गयी और प्रतिदिन जाती हूँ। छिपकर जाती हूँ दूर से एक बार देख लेने नन्दलाल को, यद्यपि यह मुझे अपने अंक में बैठा ही दीखता था। मैंने गोप-सेविकाओं को परस्पर कहते सुना- 'लगता है कि व्रजरानी के लाल को भगवती वनदेवी या अन्नपूर्णा स्वयं फल दे गयीं उस दिन। ऐसे स्वादिष्ट फल तो देखे-सुने ही नहीं। कन्हाई की नन्हीं अञ्जलि के वे फल तो समाप्त ही होने को नहीं आते। व्रजेश्वरी ने पूरे गोकुल को बाँटे हैं और अब भी वे उतने ही बने हैं।' मैं भला कब की भगवती! लेकिन व्रजराज कुमार ऐसा अद्भुत है, यह इन गोपियों को पता नहीं लगता? |
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