नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. फल-विक्रयिणी
दोष मुनि महाराज का नहीं था। दोष तो मेरा था। उन्होंने तो मुझे सीधे नन्द द्वार पर जाने को कहा था; किंतु मैं भाग्य की मारी यहाँ गली-गली भटकती फिर रही थी। इस द्वार पर सब ओर से संसार के हारे-थके ही पहुँचते हों तो क्या पता; किंतु मैं तो जब भटकते-भटकते थक गयी और निराश हो गयी तब मन में आया- 'चलो, यहाँ भी एक बार पुकार लो!' जहाँ साधरण गोप ही फल लेने की इच्छा नहीं करते, वहाँ व्रजराज के यहाँ कोई क्रय करेगा, यह मैं कैसे सोच लेती? मैं देख रही थी कि गोपों के गृह सम्पन्न हैं। राशि-राशि अन्न है इनके आँगनों में; किंतु मुझ अभागिनी का भाग्य का इनमें कोई दाना नहीं तो मुझे कैसे मिले? इतने सम्पन्न गोप- इसी से तो मैं द्वार-द्वार भटकती फिरती रही। मुझे लगा कि ये सम्पन्न लोग भला क्यों वन में जाते होंगे। व्रजराज के बहुत सेवक होंगे। वे उनके लिए वन से उत्तम फल प्रतिदिन लाते होंगे, यह सोचकर मैं इस द्वार पर नहीं आयी। सब ओर से निराश हो गयी, तब लौटने से पूर्व अंतिम बार यहाँ पहुँची। 'फल ले लो! मीठे, मधुर, गुणवान फल! सुस्वादु फल ले लो!' मैंने निराश, साधारण स्वर में ही पुकारा। मुझमें अब बहुत उच्च स्वर से पुकार लगाने की न शक्ति रही थी और न उत्साह। जी करता था कि टोकरी पटक दूँ और पटक दूँ भूमि पर अपना सिर। फूट-फूटकर रोने का मन हो रहा था। 'फलवाली! ओ फलवाली!' एक अत्यन्त मधुर बाल कण्ठ ने पुकारा। मेरा तो रोम-रोम मानो उस स्वर ने ही सुधा से सींच दिया। सबेरे से भटकते-भटकते भला किसी ने पुकारा तो सही। मैं दूर तक नहीं देख पाती। अब दृष्टि मन्द पड़ने लगी है। बिना पुकारने वाले की ओर देखे ही मैंने टोकरी उतारी सिर से और भूमि पर सामने रखकर बैठ गयी। वह डेढ़ वर्ष से भी कम वय का शिशु था- दिगम्बर शिशु! कहीं धूलि में खेल रहा होगा सखाओं के साथ। मेरी पुकार सुनकर दौड़ा आया था। मैं तो उसे देखती ही रह गयी। सुन्दरता, कोमलता, प्रकाश, सुख सबको मिलाकर बनाया होगा सृष्टिकर्त्ता ने उसे अपनी सब सावधानी और कला लगाकर। घुँघराली काली कोमल सघन अलकों से घिरा चन्द्रमुख, भाल पर काजल का बिंदु, पतली रेखा-सी काली टेढ़ी भौहें, बड़े-बड़े अञ्जन लगे नेत्र, कण्ठ में कोई बड़ा-सा लाल था और छोटे उज्ज्वल मोतियों की माला के मध्य व्याघ्र-नख लटक रहा था। लाल-लाल चरण थे। पैरों में नूपुर, कटि में रत्न- किंकणी, करों में कंकरण थे। मैं तो सिर से पैर तक, पैर से सिर तक उसे देखती ही रह गयी। पैरों पर, उदर पर, भुजाओं पर तनिक वक्ष पर और अलकों पर भी धूलि लगी थी। |
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