नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची
'माँ! मुझे छोटी-सी रोटी बना दें!' कन्हाई इधर रसोई-घर में आकर सबेरे खड़ा होने लगा है। अपनी हथेली दिखाता है- 'इतनी छोटी-मोटी रोटी दे! खूब सारा माखन लगा दे!' 'लाल! तू है, दाऊ है, भद्र है बहुत से तो सखा हैं। तू बड़ी रोटी ले ले!' रोहिणी जीजी हँसती हैं। 'ना! छोटी दे। मैं किसी को नहीं दूँगा।' यह मटकता है- 'सब की सब अकेले खाऊँगा।' यह अकेले खायगा? अकेले तो यह केवल तब दूध पी लेता था माँ का ,जब शिशु था। हम सबको पता है कि इसे छोटी रोटी क्यों चाहिये। पता नहीं कहाँ से एक ढीठ काक आ गया है- कहीं बाहर से ही आया होगा। गोकुल का तो कोई पशु-पक्षी ऐसा नहीं जो श्याम के हाथ से रोटी छीन ले। यह नीलमणि नवनीत रोटी, मोदक कुछ लेकर निकले तो बिल्लियाँ, श्वान, कौवे, मयूर, कपि तक सब इसे घेरे रहेंगे; किंतु इसके हाथ से कोई छीनता नहीं। यह हाथ बढ़ा दे तो भी लेता नहीं। यह अपनी दो अंगुलियों से तोड़कर तनिक-सा टुकड़ा जिसे दे देगा, वही झपटकर उठा लेगा। यही दे तनिक-तनिक तो वे लेंगे। कोई इसके हाथ से क्यों छीने? कोई कंगाल का घर है कि पशु-पक्षी मरभुक्खे रहेंगे। व्रजेश्वरी जीजी दाने, रोटियाँ, तृण तो इन पशु-पक्षियों को देती ही रहती हैं। इतना देती हैं कि मैं और दूसरी भी तरस जाती हैं कि हमारे आँगन में भी तो कोई पक्षी, कोई काक आवे और पञ्चग्रास का प्रसाद पा लिया करे। कन्हाई अभी रोटी लेकर चला है। बायें हाथ पर माखन चुपड़ी छोटी-सी रोटी। दाहिने हाथ से तनिक-तनिक तोड़कर मुख में डालता है। यह दिगम्बर, नवघन सुन्दर नाच रहा है घूम-घूमकर। किंकिणी, नूपुर, कंकण की रुनझुन करता नाच रहा है। बिल्लियाँ हैं कि अब इन्हें दूध नहीं पीना, मयूरों को, कपोतों को दाना नहीं चुगना। कपियों को, कौओं को न रोटी चाहिये, न मोदक, सब-सब छोड़कर श्याम के समीप घिर आये हैं। यह तनिक-सा टुकड़ा तोड़कर दे, इसलिए मुख उठाये साथ लगे रहेंगे। इसके एक तोड़कर फेंक कण पर सब झपटते हैं तो यह किलकारी लेता है। 'कनूँ! मेरी रोटी देख!' अब सब रोटी ले आये हैं। सबको छोटी रोटियाँ चाहिये। अब ये सब तनिक-सा टुकड़ा तोड़ेंगे और समीप के सखा के मुख में डालेंगे। कन्हाई दाऊ को, भद्र को, तोक को बार-बार खिला रहा है; किंतु कोई इसकी रोटी मत छुओ। कोई तोड़ने हाथ बढ़ाता है तो यह हाथ हटाकर घूम जाता है, हट जाता है। स्वयं तोड़कर खिलावेगा। |
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