नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची
अनेक बार व्रजेश्वरी को, रोहिणी जीजी को अथवा मुझे भीगते हुए दौड़कर इन्हें पकड़ना पड़ता है। ये तो पुकारने पर दूर भागते हैं। इनको कर पकड़कर, अंक में उठाकर लाओ तो भी उतरने को मचलते हैं। कन्हाई मेघों को बुला लेता है तो प्राय: फुहियाँ पड़ती हैं। नन्हें सीकर झर रहे हैं और यह दोनों कर फैलाकर सखाओं के साथ नाच रहा है। इसकी अलकों पर, अंगों पर हीरक कणिकाओं जैसी फुहियाँ बढ़ती जा रही हैं। मैं ही नहीं, सब गोपियाँ, गोप तक ठगे देखते रहते हैं नीलमणि की यह छटा। मयूरों का समूह इसके आसपास नाचता घूमता है और उनका केकारव गूँजता रहता है। शिशुओं की ताली, किलकारी, कंकण-किंकिणि, नूपुरों की रुनझुन- हमारे गोकुल में नित्य महोत्सव है। मेरा यह मनमोहन महोत्सव की मूर्ति ही है। बहुत सुकुमार है मेरा नीलमणि; किंतु कोई भी क्या करे। सब शिशु बहुत चञ्चल हैं। सब इसे लिए खेलने-दौड़ने, भागने में ही लगे रहते हैं। खेलने में लगता है तो कहाँ स्मरण रहा है कि क्षुधा भी लगती है। पावस का आतप, भले मेघ छाये हों, बहुत तीक्ष्ण हो जाता है। श्याम का मुख लाल-लाल हो उठता है। इसके भाल पर, कपोलों पर स्वेद के कण झलमला आते हैं। व्रजेश्वरी जीजी बार-बार कहती हैं- 'अतुला! तू इन सबको रोक तो सही। ये यहाँ सम्मुख आंगन में ही क्यों खेलते। यह सब भूखे होंगे। नीलमणि को, तोक को दूध पिये तो बहुत देर हो गयी। मेरा हृदय भी छटपटाता है; किंतु करूँ क्या? ये शिशु तो व्रजेश्वरी की ही नहीं सुनते। भद्र पर दोष करूँ तो ये मुझे डाँटने लगेंगी और तोक को कुछ कह नहीं सकती। उसे कुछ भी कहने जाओ तो नीलमणि रूठा धरा है। श्याम के बड़े-बड़े दृगों में अश्रु तो मुझसे नहीं देखा जाता। इन सबको किसी प्रकार ले भी आओ तो ये कितने क्षण टिकते हैं? अञ्चल में ढककर दूध पिलाने लगो तो भी मुख मोड़कर देखते रहेंगे कि कोई सखा-भाग कर बाहर तो नहीं चला गया। एक भाग निकले तो दूसरे रुकने से रहे। 'कन्हाई बहुत दुर्बल है।' मैंने जीजी से कहा-'इसे कुछ माखन खिलाओ, दूध पिलाओ तो इसमें थोड़ी शक्ति आये।' |
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