नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. अतुला चाची-चिर-चपल
मेरे लिए मेरा नीलमणि पर्याप्त है। वह अकेला है जो मुझे 'माँ' कहता है। वह मेरा है- इसमें मैं किसी-की सुनने वाली नहीं हूँ। वह सभी को 'माँ' कहता है- ऐसा तो नहीं है। अपनी ताइयों को 'दायी' कहता है और मेरा छोटी जेठानु कुबला उसे चाची कहना सिखलाती हैं तो उन्हें 'छाछी' कह लेता है; किंतु मुझे 'छाछी' कहलाने लगती हैं तो मेरा लाल सिर-हाथ सब हिलाकर मना करता है। वह 'माँ' कहता है मुझे और मेरे अंक में भाग आता है। मेरा कन्हाई खड़ा होने लगा था, तब मैं या व्रजेश्वरी जीजी इसे खड़ा कर देती थीं। यह अपने दोनों हाथ उठाये, हमारे कर पकड़ने की मुद्रा में दो पल खड़ा रहता, डगमगाता और फिर बैठ जाता था। इसके खड़े होने पर दाऊ अपने छोटे-छोटे हाथों से ताली बजाते कितना प्रसन्न होकर नाचने लगा था, जब यह पहिली बार खड़ा हुआ। यह बैठ गया और बड़े भाई को देख-देखकर ताली बजाने का प्रयत्न करता किलकता रहा। इसके नन्हें दाँत- अब तो मुख भर गया है! किंतु जब दो-दो ही ऊपर नीचे थे- इसकी ये उज्वल दँतुलियाँ जैसे चन्द्र-रश्मि को जमाकर बनी हैं। मेरा लाल हँसता है तो चन्द्रिका चमक जाती है। इसके लाल-लाल पतले छोटे अधरोष्ठ लगता है कि दुग्ध-स्नात हो गये। 'दा.....दा' पहिले कहना प्रारम्भ किया था इसने और फिर मुझे 'माँ' कहने लगा। अब तो दादा, बाबा, मैया, दाऊ आदि सब बोलता है, किंतु इसका तुतलाना भी बालकों से भिन्न है। चाचा को छाछा कहेगा और ताऊ को दाऊ। इसे अपनी अँगुलियाँ पकड़ाकर मैंने कम ही चलना सिखलाया। मयूर इसके घन सुन्दर अंग को देखते ही आँगन में उतर आते हैं और नाचने लगते हैं। इसने तो उनमें-से किसी का भी कण्ठ पकड़कर चलना सीखा। वे भी इसके पकड़ने पर बहुत धीरे पद उठाते थे। अब तो यह उनके साथ ताली बजाकर अथवा दोनों कर फैलाकर नृत्य करता है। वह मरा राक्षस आ गया उस दिन। पता नहीं वह आँधी में उड़ आया था या उसी ने आँधी चलायी थी। अपने पाप से ही मारा गया। इतने सुकुमार शिशु को लेकर उड़ ही गया था; किंतु नारायण ने इस नीलमणि की रक्षा की। वह तो शिला पर चक्कर खाकर गिरा होगा और पत्थर की चोट से मर गया। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज