नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. काकभुशुण्डि–क्रीड़ा
माता को लगेगा ही कि सब बालकों के शरीरों पर प्रात∶-सायं गोपुच्छ घूमे निखिल अमंगल-निवारण के लिए। इनके भाल गोरज-भषित हों। मैं गोष्ठ में किसी भी वृषभ की पीठ पर जाकर बैठने लगा। कोई पशु मेरे बैठने का बुरा नहीं मानता। मैं उसे कोई असुविधा उत्पन्न नहीं करता। पहिले ही दिन नन्दनन्दन ने माता के कहने पर भूमि में मस्तक रखकर गाय के पदों में ऐसे प्रणाम किया, जैसे सदा से करते आये हों। इनकी घुँघराली अलकें, गोरज से भूषित हो गयीं। भाल पर धूलि लग गयी। नासिकाग्र और भृकुटि की धूसर शोभा देखने ही योग्य थी, अब हथेली में गोबर या गोमूत्र तो लग ही जाता है। दाऊ के, भद्र के, विशाल के, किसी के भी मुख, उदर या वक्ष पर ये अपने हाथ पोंछ देते हैं। इनके सब सखा मैया के वस्त्र को सार्थक करते हैं। इतनी अधिक गायें हैं, लक्ष-लक्ष गाय। प्रत्येक पंक्ति के सम्मुख भी भूमि में मस्तक नहीं रख पाती मैया। बहुत देर लगती है। इनके सखा भी अब बहुत हो गये हैं। दोनों माताओं को अत्यन्त सावधान रहना पड़ता है। गायें इन्हें देखकर हुँकार करने लगती हैं। बछडे़ कूद-कर पास आते हैं और सूँघ-सूँघकर फुदकते हैं। ये लोग हैं कि ताली बजाते हैं, किलकते हैं। माताओं की दृष्टि तनिक हटी और ये गायों के समीप पहुँचे। दाऊ को उज्ज्वल, धवल, उच्च धर्म से प्रीति है। वे उसके नवीन श्रृंगों को पकड़कर झूलने लगेंगे। ये मेरे आराध्य किसी बछड़े या गौ का मुख दोनों करों में लेना चाहेंगे। मैया के वात्सल्य का तो पार नहीं है- व्याकुल होकर मैं बोलता उड़ने लगता हूँ कि कहीं कोई बछड़ा अपनी रूक्ष जीभ से इनके सुकुमार श्रीअंग को चाटने न लगे। गोमाता में इतनी समझ है, वे जिह्वा निकाल कर भी मुख हटा लेती हैं। इनको भी गोरज से अपार प्रेम है। गोष्ठ से लौटते समय अवश्य लोट-पोट होने लगते हैं पृथ्वी में। नन्हीं मुट्ठियों में भरकर एक दूसरे के अंगों पर धूलि डालते हैं। नित्य मैया से मचलते हैं अधिक देर धूलि-क्रीड़ा के लिए। गोद में मचल-मचलकर उतरना चाहते हैं। मैया पुचकार कर कठिनाई से मनाकर इन्हें ला पाती हैं। |
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