नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. काकभुशुण्डि–क्रीड़ा
मुझे स्पर्श मिला, दर्शन मिला और संकेत मिला कि इन चारु-चरणों को भली प्रकार देखकर मैं अपने हृदय में धारण कर लूँ। इतनी कृपा मेरे परमगुरु ही तो मुझ पर कर सकते थे। सुकुमार नन्हें चरणों में-से बारी-बारी से एक-एक को भगवान ने अपने करों में लिया। एक-एक रेखाएँ मुझे दिखाते गये और कुछ कहते गये। वे क्या कह रहे थे, यह सुन सकने की स्थिति में मैं नहीं था। मेरे प्राण उन नन्हें अरुण चरणों में लगे थे। दोनों चरणों की रेखाएँ मुझे दिखलाकर मेरे अंक से लेकर माता के अंक में देते हुए मुझे झिड़की दी- 'तुम इतने दुर्बल हो कि इस शिशु को कुछ क्षण लेने में ही तुम्हारे कर काँपने लगे हैं।' मैंने मस्तक झुका लिया। अपने आह्लाद को नियन्त्रित करने में असफल होने के कारण मेरे कर काँपने लगे थे। धूर्जटि ने फिर जटाओं से झाड़ा और विभूति दी- 'इसे कोई भय नहीं है। इसके इन चरणों का स्मरण सबको समस्त भयों से सदा परित्राण प्रदान करेगा।' मैं देख रहा था कि मैया के नेत्र आनन्दाश्रु से भर आये थे। नीलसुन्दर एकटक देख रहे थे भगवान चन्द्रमौलि को और हँस रहे थे, किलक रहे थे, कर-पद उछाल रहे थे। आशीर्वाद देकर, पुन∶ श्रृंगीनाद करके आशुतोष विदा हुए तो मैंने पुर के बाहर पहुँचकर उनसे अनुमति माँगी और अपने इस काक-देह में आ गया। अब मुझे क्या कहीं आवास चाहिये? प्रभात में यमुना-स्नान करके नन्द-भवन आ जाता हूँ। दिनभर भवन पर ही इधर से उधर उड़ता-बैठता हूँ। मुझे नित्य ये दयाधाम आहार दे देते हैं। रात्रि में यमुना-तट के सघन कदम्ब पर बैठकर इनके ही चारु चरणों की उन रेखाओं का चिन्तन करता हूँ। उस दिन मैया इन नीलसुन्दर को अंक में लिए स्तनपान करा रही थी। द्वार के सम्मुख ही बैठी थी अत∶ मैं देख सकता था। इनके दर्शनों के लोभ से ही तो अपना दिव्य आश्रम त्यागकर यहाँ आया हूँ। आनन्द में मग्न अधखुले कज्जल-रञ्जित विशाल लोचन। माता के एक स्तन से हटाकर दूसरे में मुख लगा लिया है और इस प्रयत्न में जो दूध की बूँद माता के वक्ष पर गिर गयी है, उसे अपने अरुण करों से बिना देखे ही पौंछते जा रहे हैं। |
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