नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. कुबला चाची-शैशव
व्रजेश्वरी जीजी ने दोनों हाथ बढ़ाकर अंक में ले लिया। अब उनके कण्ठ में दोनों भुजा डालकर चिपक गया है और मुड़कर मेरी ओर देख रहा है। इसे लगा होगा- 'यह तो चाची है इसकी। इससे डरकर भला क्यों भागा?' अपनी झेंप मिटाने को दोनों हाथ फैलाकर मेरी गोद में आने को झुक पड़ा है। मेरे कण्ठ से आ चिपका है अब यह! इस प्रकार यह किन्हीं-किन्हीं गोपियों के अंक में आता है। इसे लेने को किसका मन नहीं मचलेगा; किंतु अब यही दूसरी बुलाती है भुजा फैलाकर, पुचकार कर तो यह किलकता है, मुड़कर देखता है उसकी ओर और मेरे कण्ठ से चिपक जाता है। 'कुबला! तुम धन्य हो।' गोपी कहती है- 'यह कुवलयदल श्याम तुमसे इतना हिल गया है। मेरे तो अंक में ही नहीं आता है।' 'मेरा लाल भी तो है!' मेरा हृदय सचमुच हर्ष से गौरव से द्विगुण हुआ जा रहा है किंतु यह चञ्चल अब अंक में टिकता नहीं। यह तो उतरने के लिए मचलने लगा। 'अब अपने लाल की सहायता करों!' गोपी हँस रही है। नीलमणि हाथ हिलाकर मुझे समीप बुला रहा है। क्या बात है? शिशु की समस्या भी तो उसे इतनी ही कड़ी लगती है, जितनी हम सबको अपनी समस्याएँ। अच्छा! यह पक्षियों के प्रतिबिम्ब पकड़ रहा है और हाथ नहीं आते तो मुझे सहायता करने को बुला रहा था। यह आँगन में आया और पक्षियों की भीड़ कहाँ से आ जाती है? कपोत, काक, शुक, हंस, मयूर- गोरैयों और मैना से लेकर भारी सारस तक- इन सबको वन में, सरोवर में कहीं, स्थान नहीं, सब दल के दल आ जाते हैं इसी आंगन में और शिशु तो उनको देखकर किलकते भागेंगे ही इनकी ओर। ये सब पता नहीं, कैसे इतने घृष्ट हो गये हैं? उड़ते नहीं, कोई समीप आवे तो यहाँ से फुदककर वहाँ बैठ जायँगे। अब नीलमणि इनके प्रतिबिम्ब पकड़ लेना चाहता है। मुझे इसका ध्यान प्रतिबिम्ब से हटाकर कपोतों की ओर कर देना है। कपोत साधु पक्षी हैं। शिशु के समीप आकर भी चञ्चु नहीं चलाते तो जीजी इन्हें दाने डालती हैं। मैं मना करती हूँ- 'ये इतने पक्षी इसी से आँगन में भरे रहते हैं दिनभर।' 'इन्हें देख-देखकर तेरा नीलमणि प्रसन्न होता है।' व्रजेश्वरी जीजी कहती हैं- 'दाऊ और दूसरे शिशु भी इनके साथ खेलने में लगे रहते हैं।' |
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