नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. नाना सुमुख-अन्नप्राशन
अब यह लौट पड़ा है। बालकों का हाथ खींचने लगा है। हठ करने लगा है कि सबको छोड़ दो। यह बार-बार भेजने पर भी लौट आता है। सब नहीं लेते तो यह भी कुछ नहीं लेगा। नन्दराय - महर्षि सब पुचकारते हैं, प्रोत्साहित करते हैं; किंतु यह अकेले कुछ नहीं लेगा- प्रगट तो हो गयी इसकी रुचि। ‘भैया! तू कोई खिलौना उठा ला यहाँ और अपने इस अनुज के साथ यहीं खेल!’ महर्षि की यह बात दाऊ ने समझ ली है। वह समझ गया है कि खिलौने उठाकर इसे ही लाने हैं। 'क्या उठायेगा यह?' सबके नेत्र लगे हैं। सबका हृदय धड़क रहा है; किंतु इसने वेत्र ठीक उठाया। यह सबका शासक ही तो बनेगा। इसके करों में राजदण्ड शोभित होगा- पर यह हल क्यों? इसने तो हल उठा लिया है दूसरे कर में। मैने सुन लिया है, मेरी यशोदा बेटी ने हँसकर पूछा है- 'यह क्या? राम कृषक और गोपाल दोनों बनेगा?' रोहिणी तो रानी बेटी हैं। इनके स्वर में उचित औदार्य है- 'यह पुरानी भूल सुधार दे तो उत्तम ही है। वृष्णि-वंश एक होकर भी मथुरा और गोकुल में विभक्त हो गया, यह अच्छा तो नहीं था। व्रजराज के वे भाई इस नीलमणि को देखकर गोकुल में ही आ बसें तो मुझे हर्ष होगा। यह राम अपने अनुज से दो पद आगे बढ़कर गोपाल के साथ कृषक भी बन जाय तो बहुत उत्तम।' कहाँ का गोपाल- मुझे तो इसके कर का वेत्र राजदण्ड दीखता है और यह पूरी पृथ्वी का कण्टक कृषक के समान निकाल देगा। सब गोप-बालक ही तो हैं और शिशु होने पर भी गोपों की सहज समान बुद्धि ही सब-में है। यह विशाल, ॠषभ, अर्जुन, भद्र- सब केवल रज्जु और वेत्र दण्ड लेते हैं। अब किसी शिशु को दूसरा कोई खिलौना नहीं देखना है। सबसे अन्त में चला है यह मेरा व्रज-युवराज। कटि में किंकिणी और चरणों में नूपुर- करों में कंकण, कण्ठ में छोटे शंखों के साथ व्याघ्र-नख और मुक्तामाल, यह अपनी घुँघराली काली अलकें लहराता, अरुण पद्म-पदों को खींचता, घुटनों के सहारे किलकता चल पड़ा है। इतने खिलौने देखकर प्रसन्न हो गया है। |
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