नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
यह साधकमात्र पर, भले उनका साधन कुछ भी हो, अनुकम्पा करने वाला जो अन्तर्यामी पुरुषोत्तम है, वही प्राणों का प्राण, आत्मा की आत्मा अवतीर्ण होता है; इस धरा पर अपने को अभिव्यक्त करता है। वह जो अन्त:करण में आ सकता है, वह बाहर भी साकार होने में समर्थ है और अन्त:करण में जो उसकी श्रीमूर्ति आती है, सदा मन:कल्पित ही तो होगी। जिसने भी देखा हो- शास्त्र के उस वर्णन के आधार पर हम कल्पना ही तो करेंगे; किन्तु कृष्ण की यह कल्पना सामान्य नहीं होती। कृष्ण कभी किसी रूप में साधारण नहीं होते।
श्री शुकदेवजी कहते हैं कि केवल एक बार कृष्ण की मन:कल्पित मूर्ति भी अन्तर में आ जाय तो वह भागवती गति दे देती है। सच्चिदानंद कल्पना में आकर कल्पित माया के अनादि विस्तार को सदा के लिए समाप्त कर देता है, यही तो श्रुति-शास्त्र-प्रतिपादित शाश्वत सत्य है। सगुण सर्वेश्वर अनन्त करुणावरुणालय प्रेमैकमूर्ति प्रेमपरवश अपने को आविर्भूत करता है। वह आता है तो वास्तविक रूप में ही; किन्तु हमारे लिए वह अग्राह्य है। अत: हम अपनी कल्पना के पात्र में उस अनन्त रससिन्धु को पात्र के अनुसार भरते हैं। यह हमारी विवशता है। श्रीकृष्ण का स्मरण, चिन्तन तथा उनकी लीला के वर्णन में शास्त्र की, महर्षियों की, मेरी भी यह विवशता ही है कि वे सच्चिदानन्दघन न मन के विषय बनते, न वाणी के। उनमें मन-वाणी का प्रवेश नहीं है।
यह जो आपका अविकारी सच्चिदानन्द अन्तर्यामी है, वह साकार होकर सामने आ जाय तो कैसा लगेगा? कैसा होगा? यह बुद्धि सोच नहीं सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.12.39
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.15.55
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