नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
18. पीवरी तायी–भूम्युपवेश
महर्षि ने पुष्पाञ्जलि अर्पित करायी और कुंकुम का तिलक कर दिया इसके भाल पर। अब देवरानी को कक्ष में आने की अनुमति मिल गयी है। हम सब तो यहाँ रात्रि तक गायेंगी- उत्सव मनायेंगी। मैं ही सबसे अधिक भीत थी, सबसे अधिक विरोध था मेरे मन में नन्दनन्दन को कक्ष से बाहर लाकर अभी आतप के सम्मुख करने का और अब मुझे ही सबसे अधिक उत्सुकता हो गयी है। कितना प्रसन्न हुआ था मेरा कृष्ण कक्ष से बाहर खुले में आकर! इसका वह किलकना, वह आनन्दमग्न होकर हाथ-पैर चलाना मुझे क्षण-भर को भी भूलता नहीं है। शिशु अब खुले में आना चाहता है। यह अब बैठने का प्रयत्न करता है, मैं यह देख आयी हूँ। पलने में उलट-पलट होता है। आस्तरण को अस्त-व्यस्त करता ही रहता है और पेट के बल होकर उचकने की चेष्टा करता है। देवरानी कहती हैं- 'व्रजपति इसके योग्य कोई आस्तरण नहीं ला देते हैं।' इसके योग्य आस्तरण के लिए मैंने कई बार अपने स्वामी से कहा है। मैं इसकी तायी हूँ; किन्तु इस कुसुम-कलेवर के योग्य आस्तरण तो मैं भी सोध नहीं पाती हूँ। यह मुझे देखकर किलकता है, अंक में आने को अपने कर उठाता है; किंतु झिझक-झिझक जाती हूँ। मेरे ये मांसल कर भी कठोर ही हैं इसकी काया के लिए। मेरे स्पर्श से इसे कष्ट तो नहीं होगा? लेकिन ऐसे शिशु को अंक और पालने में ही तो नहीं रखा जा सकता। इसके अंगों में शक्ति आवेगी जब यह भूमि पर बैठेगा, लेटेगा और सरकने-चलने का प्रयत्न करेगा। यह मेरे सम्मुख भूमि पर कर टेककर बैठेगा और मेरे विशाल से 'हाँ-हूँ' करेगा- कितनी साध है मेरी यह देखने की। हमारा यह नीलमणि भूमि पर बैठेगा, घुटनों के सहारे धीरे-धीरे चलेगा, मेरी देवरानी की या रोहिणी जीजी की अँगुली पकड़कर खड़ा होगा! मुझे 'तायी' कहेगा! मैं उसी दिन से-इसके कक्ष में बाहर आने के उस दिन से यही सब स्वप्न रात-दिन देखती हूँ और आज यह भूमि पर बैठेगा। महर्षि शाण्डिल्य ने मुहूर्त शीघ्र निकालकर अच्छा ही किया। यह अब पाँच मास से कई दिन अधिक का हो गया है। |
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