नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. श्रीगर्गाचार्य–नामकरण
मैंने कहा कि अनेक ऐसे कारण हैं, जिससे मैं एकान्त में केवल वृषभानुजी को ही यह बात बतला सकता हूँ। जानता हूँ कि उसे वे रानी कीर्तिदा से अवश्य कह देंगे; किंतु ये दोनों शिशु- मैं इन्हें अबोध मानने की भूल कैसे कर सकता था। ये दोनों नर-नाट्य करते भले शिशु बने रहें; किंतु इन चिद्घन के सम्मुख मुझे कोई अति साहस नहीं करना चाहिए। इनका पुनीत प्रेम स्वाभाविक रूप में ही पनपना उचित है। उसमें मेरी सम्मति का संस्कार पड़ना उचित नहीं। मेरा उस समय का सोचना उचित था। वृषभानुजी मुझे एकान्त कक्ष में ले गये। मैंने वहाँ कह दिया- 'आपकी तनया नन्दनन्दन की अभिन्न सहचरी हैं।' 'आप यह विवाह करा दें!' वृषभानुजी ने आग्रह किया। मैं यह आग्रह कैसे मान लेता। सृष्टिकर्त्ता ने यह सौभाग्य अपने लिए सुरक्षित रखा है और वह भी संसार के सामने नहीं आना है अनादि दम्पत्ति का विवाह कैसा? मेरे समीप बहाना था- 'मैं यदुकुल का आचार्य हूँ। मैं कोई संस्कार कराने लगूँगा तो कंस को नन्दतनय के सम्बन्ध में सन्देह होगा। रोहिणीजी नन्दभवन में हैं ही। देवकी की अष्टम सन्तान कन्या हो, यह बात बहुत असंगत है। वसुदेवजी से नन्दराय का सौहार्द है। अत∶ कंस के सन्देह को पुष्ट करेगा मेरा नन्दनन्दन के किसी भी संस्कार में कोई सहयोग देना।' यह बात वृषभानुजी की समझ में शीघ्र आ गयी। मैं गोकुल से तो किसी प्रकार बच आया था, किंतु वृषभानुजी की अपार दक्षिणा मुझे लेनी पड़ी। वह सब मैं वहीं छोड़ आया हूँ। मेरे आग्रह पर उन्होंने उसे ब्राह्मणों में वितरित कर देना स्वीकार कर लिया है। 'इस छाटे कुमार का विवाह वृषभानुजी की कन्या से होना है?' वसुदेवजी ने अन्त में पूछ लिया। 'आप को वह पुत्रवधू नहीं प्राप्ति होगी।' गर्गजी अब चौंके। उन्होंने वसुदेवजी के सम्मुख जो कुछ कहा था, वह सब नहीं कहना था। अब उसे सम्हालना आवश्यक हो गया-'वह व्रज से बाहर जाने वाली ही नहीं है। आपके कुमार तो राजकन्याएँ लावेंगे-इतनी राजकन्याएँ कि एक नगर बस जायगा उनकी ही सन्तानों से।' |
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