नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. श्रीगर्गाचार्य–नामकरण
मैंने यहाँ भी संक्षिप्त गणपति पूजन करके स्वस्तिपाठ किया और बालक को गोद में लिया- 'आप श्रीनन्दराय के अभिन्न सखा हैं। आपका यह कुमार उनके पुत्र का नित्य सखा है। उन नन्दनन्दन के अग्रज हैं बल- अत∶ यह सुबल। इसकी अंगकान्ति, इसका सौन्दर्य एवं शील उनके ही समान; किंतु यह सदा सौम्यशील, स्नेहमय रहेगा।' बालिका मेरे अंक में आयी तो मैं कुछ काल तक स्वयं को ही विस्मृत हो गया। उसके वे पंकज-चारु श्रीचरण! वह मेरे मुख की ही ओर देख रही थी। मैंने किसी प्रकार कहा- 'यह आह्लाद की-आराधना की अधिष्ठात्री राधा।' 'इसका शील?' रानी कीर्तिदा ने संकोचपूर्वक पूछा। आर्य माता को सुता केवल शीलावती चाहिए। पुत्री को धन मिले, सुख मिले, सन्तान मिले, सुन्दर पति मिले- सब मिले; किंतु शील पहिले मिले। सब न मिले और शील मिले तो भी उसे स्वीकार है। 'इसका शील सृष्टि को शुद्ध प्रेम के स्वरूप का शाश्वत आदर्श बनेगा! यह स्वयं साक्षात महाभाव की मूर्ति है। इसके प्रेम का स्मरण पवित्र करता रहेगा अनन्तकाल तक प्राणियों को। सम्पूर्ण सदगुण इसकी चरणोपासना से प्राप्त होंगे!' मैं जानता हूँ कि मेरे पास उस बालिका के प्रभाव को- गुण-गरिमा को प्रकट करने के लिए शब्द नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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