नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. श्रीगर्गाचार्य–नामकरण
'पहिले युगों से यह श्वेत, रक्त तथा पीतरूप धारण कर चुका है। इस बार यहाँ कृष्ण हुआ है, अत∶ इसका नाम कृष्ण-कृष्णचन्द्र!' मैंने नामकरण किया और तबसे मेरा मन रट रहा है- 'कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण!' इतनी मधुरिमा, इतना अमृतस्यन्दी यह नाम! आकर्षण की, आनन्द की सत्ता ही इसमें साकार हो गयी है। मैंने लाक्षणिक भाषा का उपयोग करके कह दिया- 'पहिले कभी यह वसुदेवजी के यहाँ जन्म ले चुका है, अत∶ जानने वाले इसे वासुदेव कहेंगे।' वसु-अन्त∶करण में प्रकाश के रूप में सदा, सबका यह अन्तर्यामी वासुदेव है यह तो जानने वाले ही इसे कहेंगे। यह नित्य नाम बहुत प्रसिद्धि प्राप्त करेगा। मेरे इस नाम-करण से नन्दराय चौंके नहीं। वे सरल साधु पुरुष हैं। वे अनुभव करते हैं कि तुमसे उनका सौहार्द युग-युग से ही है। मैंने स्पष्ट कह दिया- व्रजपति! तुम्हारे इस पुत्र के बहुत से नाम हैं, बहुत रूप हैं; किंतु इसके उन गुण कर्मों के अनुसार नामों को, रूपों को भी मैं ही जानता हूँ, लोग नहीं जानते।' 'आप सर्वज्ञ हैं!' नन्दराय ने केवल इतना ही कहा और मस्तक झुकाया। मुझे लगा कि मैं अपने को सम्हालूँगा नहीं तो पता नहीं क्या-क्या बोल जाऊँगा। अत∶ मैंने संक्षिप्त रूप से थोड़ा-सा प्रभाव मात्र बतला दिया। 'यह सम्पूर्ण गोपकुलों को आनन्दित करेगा। इसके द्वारा आप सब सभी आपत्तियों से पार हो जायेंगे। सदा-से-युग-युग से इसी के द्वारा दुर्दम दस्युओं के दमन से सत्पुरुषों की रक्षा होती आयी है। महाभाग्यवान मानव होंगे वे जिनका इससे प्रेम होगा। जैसे भगवान नारायण के आश्रित सुरों को असुर आक्रान्त नहीं कर पाते, वैसे ही इसकी शरण लेने वालों को शत्रु दबा नहीं सकेंगे। आपका यह पुत्र ऐसा है कि श्री, कीर्ति, प्रभावादि में केवल नारायण ही इसके समान कहे जा सकते हैं। अत∶ इसकी एकाग्रचित्त से रक्षा करें।' नन्दराय कहने लगे- 'मेरा सम्पूर्ण गोधन-धन, समस्त गोकुल, मेरा सर्वस्व श्रीचरणों में समर्पित......।' |
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