नंद महर के भावते, जागौ मेरे बारे।
प्रात भयौ उठि देखिऐ, रवि किरनि उज्यारे।
ग्वाल-बाल सब टेरहीं, गैया बन चारन।
लाल उठौ नुख धोइऐ, लागी बदन उघारन।
मुख तैं पट न्यारौ कियौ, माता कर अपनैं।
देखि बदन चक्रित भई सौंतुष की सपनै।
कहा कहौं वा रूप की, को बरनि बतावै।
सूर स्याम के गुन अगम, नँद-सुवन कहावै।।439।।