नंद जू मेरैं मन आनंद भयो -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


(नंद जू) मेरैं मन आनंद भयो, मैं गोबर्धन तैं आयौ।
तुम्हरैं पुत्र भयौ, हौं सुनि कै, अति आतुर उठि धायौ।
बंदीजन अरु भिच्छुक सुनि-सुनि दूरि-दूरि तैं आए।
इक पहिलैं ही आसा लागे, बहुत दिननि तैं छाए।
ते पहिरे कंचन-मनि-भूषन, नाना बसन अनूप।
मोहिं मिले मारग मैं, मानौ जात कहूँ के भूप।
तुम तौ परम उदार नंद जू, जो मांग्यौ सो दीन्हौ।
ऐसो और कौन त्रिभुवन मैं, तुम सरि साकौ कीन्हौ।
कोटि देहु तौ रुचि नहिं मानौं, बिनु देखे नहिं जैहौं।
नंदराइ, सुनि बिनति मेरी, तबहिं बिदा भल ह्वैहौं।
दीजै मौहिं कृपा करि सोई, जो हौं आयौ मांगन।
जसुमति-सुत अपनैं पाइनि चलि, खेलत आवै आंगन।
जब हंसि कै मोहन कछु बोलै, तिहिं सुनि कै घर जाऊं।
हौं तौ तेरे घर कौ ढाढ़ी, सूरदास मोहिं नाऊँ।।35।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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