नद गोप सब सखा निहारत, जसुमति सुत कौ भाव नहीं।
उग्रसेन वसुदेव उपंगसुत, सुफलक सुत, वैसै सँग ही।।
जबही मन न्यारौ हरि कीन्हौ, गोपनि मन यह व्यापि गई।
बोलि उठे इहि अंतर मधुरे, निठुर रूप जो ब्रह्म मई।।
अति प्रतिपाल कियौ तुम हमरौ, सुनत नंद जिय झझकि रहे।
'सूरदास' प्रभु की बसुद्यो सौ, की मोसौ ये वचन कहे।।3112।।