नंद-भवन मैं कान्‍ह अरोगै 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग



मूँग मसूर उरद चनदारी। कनक-फटक धरि फटकि पछारी।
रोटी, बाटी, पोरी, झोरी। इक कोरी इक धीव चभोरी।
गायौ-घृत भरि धरी कटोरी। कछु खायौ कछु फेटैं छोरो।
मीठैं तेल चना की भाजी। एक मकूनी दै मोहिं साजी।
मीठे चरपर उज्ज्वल कूरा। हौंस होइ तौ ल्याऊँ मूरा।
मूँग-पकौरा पनौ पतबरा। इक कोरे इक भिजे गुरबरा।
पापर बरी मिथौरि फुलौरी। कूर बरी काचरी पिठौरी।
बहुत मि‍रिच दै किए निमोना। बेसन के दस बीसक दोना।
बन कौरा पिंडीक चिचिंडी। सीप पिंड़ारू कोमल भिंडी।
चौराई लाल्हा अरु पोई। मध्य मेलि निबुआनि निचाई।
रुचिर लजालु लोनिका फाँगी। कढ़ी कृपालु दूसरैं माँगी।
सरसौं, मेथी, सोवा, पालक। बधुवा रौषि लियौ जु उतालक।
हींग हरद म्रिच छौंके तेले। अदरख और आँवरे मेले।
सालन सकल कपूर सुवासत। स्वाद लेत सुंदर हरि ग्रासत।
आंब आदि दै सबै सँधाने। सब चाखे गोबर्धन-राने।
कान्ह कह्यौ हौं मातु अधानौ। अब मोकौं सीतल जल आनौ।
अँचवन लै तब धोए कर मुख। सेष न बरनै भोजन कौ सुख।
उज्ज्वल पान, कपूर कस्तुरी। आरोगत मुख की छबि रूरी।
चंदन अंग सखनि कैं चरच्यौ। जसुमति के सुख कौं नहिं परच्यौ।
जूठनि माँगि सूर जन लीन्हौं। बाँटि प्रसाद सबनि कौं दीन्हौं।
जन्म-जन्म बाढ़यौ जूठनि कौ। चेरौ नंद महर के धन कौ।।396।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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