नंद-नंदन बर गिरिवरधारी 5 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ
दूसरी चीर-हरन-लीला



तौ तुम बैठि रहौ जलहीं सब। बसन अभूषन नहिं चाहतिं अब।।
तबहिं देहुँ जल बाहर आवहु। बाँह उठाइ अँग दिखरावहु।।
कत हौ सीत सहति सुकुमारी। सकुचि देहु जलही मैं डारी।।
फरयौ कदम ब्रत फरनि तुम्हारैं। अब कह लज्जा करतिं हमारैं।।
लेहु न आइ आपुने ब्रत कौं। मैं जानत या ब्रत के धत कौं।।
नीकैं ब्रत कीन्हौं तनु गारी। ब्रत ल्यायौ धरि मैं गिरिधारी।।
तुम मन-कामनि पूरन करिहौं। रास-रंग रचि-रचि सुख भरिहौं।।
यह सुनि कै मन हर्ष बढ़ायौ। व्रत कौ पूरन फल हम पायौ।।
छाँड़हु तुम यह टेक कन्हाई। नीर माहि हम गईं जड़ाई।।
आभूषन सब आपुहिं लेहू। चीर कृपा करि हमकौं देहू।।
हा हा लागैं पाइ तिहारैं। पाप होत है जाड़नि मारैं।।
आजुहिं तैं हम दासी तुम्हारी। कैसें दिखावैं अंग उघारी।।
अंग दिखाएहिं अंबर पैहौ। नातरु ऐसेहिं दिवस गैवेहौ।।
मेरे कहैं निकसि सब आवहु। थोरैहिं हमकौं भलौं मनावहु।।
मुहाँचही तरुनी मुसुकानी। यह आपुन थोरौ करि जानी।।
जोइ-जोइ कहौं सु तुमकौं सोहै। आज तुम्हारी पटतर को है।।
हमरी पति सब तुम्हरैं हाथा। तुमहिं कहौं ऐसी ब्रजनाथा।।
तप तनु गारि कियौ जिहिं कारन। सो फल लग्यौ नीप-तरु-डारन।।
आवहु निकसि लेहु पट भूषन। यह लागैं हमकौं सब दूषन।।
अब अंतर कत राखतिं हमसौं। बारंबार कहत हौं तुमसौं।।
गोपिनी मिलि यह बात बिचारी। अब तौ टेक परे बनवारी।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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