नंद-नंदन-मुख देखौ नीके।
अंग-अंग-प्रति कोटि माधुरी, निरखि होत सुख जी कै।।
सुभग स्रवन कुण्डल की आभा, झलक कपोलनि पी कै।
दह-दह-अमृत मकर क्रीड़त मनु, यह उपमा कछु ही कै।।
और अंग की सुधि नहिं जानै, करे कहति है लीकै।
‘सूरदास’ प्रभु नटवर काछे, रहत है रतिपति वीकै।।1826।।