नंदसुवन ब्रजभावते संग2 -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

Prev.png
राग बिलावल




जुवति दल पेलि कै छेकि सुबल गहि लीनौ।
कंठ उपरना मेलि कै खैचि आपु बस कीनौ।।
सुनहु सुबल साँची कहौ तौ छूटन भले पावौ।
कल बल बानिक बानि कै हलधर कौ पकरावौ।।
बहुरि सिमिटि सब सुदरी सकर्षन मिलि घेरे।
फेट गही चंद्रावली उलटि सखिनि तन हेरे।।
सौधे नावौ सीस तै काजर लै भीर आई।
मोहन मुरि हसि कै कहै दोऊ आँखि अँजाई।।
फेरि पुकारी राधिका स्याम जहाँ है ठाढ़े।
और सखिनि की ओट ह्वै गहै औचकहिं गाढ़े।।
देखि सबै चहुँ ओर सौ दौरि आइ ललचानी।
अंग अंग बहु रंग सौ करी बाम मनमानी।।
केसरि सौ पट बोरि कै श्रीमुख मीडत रोरी।
ताली हाथ बजाइ कै बोलत हो हो होरी।।
नागरि अति अनुराग सौ मुदित बदन तन हेरै।
सरबस बारै बारने अचल हरि पर फैरै।।
परस-परम-सुख ऊपज्यौ भयौ तृषित कौ भायौ।
मगन भई सब सुदरी रस भीन्यौ हिय आयौ।।
उत अग्रज इत स्याम सौ दुहुनि दिसा रस लीन्ही।
सूरज-प्रभु-सँग खेलती इहि बिधि गोपकुमारी।
सब ब्रज छायौ प्रेम सो सुखसागर गिरिधारी।। 129 ।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः