नंदराइ कैं नवनिधि आई।
माथे मुकुट, स्रवन मनि-कुंडल, पीत बसन, भुज चारि सुहाई।
बाजत ताल-मृदंग जंत्र-गति, चरचि अरगजा अंग चढ़ाई।
अच्छत दूब लिये रिषि ठाढ़े, बारिनि बंदनवार बँधाई।
छिरकत हरद दही, हिय हरषत, गिरत अंक भरि लेत उठाई।
सूरदास सब मिलत परस्पर, दान देत नहिं नंद अघाई॥19॥