ध्रुवदास

ध्रुवदास
ध्रुवदास
पूरा नाम ध्रुवदास
जन्म लगभग संवत 1640 (1583 ई.) के समीप।
जन्म भूमि देववन, सहारनपुर
मृत्यु लगभग संवत 1700 विक्रमी (1643 ई.) के समीप।
मृत्यु स्थान वृन्दावन, मथुरा
अभिभावक श्‍यामदास
कर्म भूमि ब्रज
मुख्य रचनाएँ 'बयालीस-लीला'
प्रसिद्धि रसिक महानुभाव
विशेष योगदान 'राधावल्लभ सम्प्रदाय' के प्रेम-सिद्धान्त और रस पद्धति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी ध्रुवदास ने बयालीस ग्रन्‍थों में युगलकिशोर के रस, भाव, लीला, स्‍वरूप, तत्‍व, धाम, केलि आदि अनेक विषयों का वर्णन किया है। इन सब ग्रन्‍थों का संकलित रूप ‘बयालीस-लीला’ के नाम से प्रसिद्ध है।

ध्रुवदास ने 'राधावल्लभ सम्प्रदाय' के प्रेम-सिद्धान्त और रस पद्धति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। श्री सेवकजी एवं श्री ध्रुवदासजी 'राधावल्लभ सम्प्रदाय' के आरम्भ के ऐसे दो रसिक महानुभाव थे, जिन्होंने श्री हिताचार्य की रचनाओं के आधार पर इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को सुस्पष्ट रूप-रेखा प्रदान की थी। ध्रुवदास जी के घर का क्‍या नाम था, इस विषय में कुछ पता नहीं है। इनके पूर्व-संस्‍कारों ने इनमें केवल पांच वर्ष की ही अवस्‍था में उत्कट वैराग्‍य और प्रभु-प्रेम की लगन उत्‍पन्‍न कर दी थी। बालकभक्त ध्रुव ने भी पांच वर्ष में अपने में यह लगन पायी थी। इसी साम्‍य के कारण इन्‍हें लोग 'ध्रुवदास' कहने लगे थे।

परिचय

ध्रुवदास के पिता श्‍यामदास जी कायस्‍थ देववन (सहारनपुर) के निवासी थे। इनके यहाँ कई पीढ़ियों से भक्ति चली आ रही थी। इसलिये इनमें भी वही संस्‍कार प्रकट हुए। बालक ध्रुवदास के बाबा श्रीबीठलदास जी बड़े गुरु भक्त थे, जिन्‍होंने अपने गुरुदेव श्रीहितहरिवंशचन्‍द्र महाप्रभु के वियोग में अपने प्राण तक विसर्जन कर दिये थे। ध्रुवदास का जन्‍म लगभग संवत 1640 (1583 ई.) के समीप माना जाता है। ये पांच वर्ष की अवस्‍था में ही गृह त्‍याग करके श्रीवन आ गये थे। इन्‍होंने दस वर्ष की अवस्‍था में ही प्रभु-प्राप्ति कर ली थी।

वैष्‍णवी दीक्षा

ध्रुवदास ने बचपन में ही वैष्‍णवी दीक्षा ले ली थी। इनके गुरुदेव श्रीगोपीनाथ जी महाराज गोस्‍वामी श्रीहितहरिवंशचन्‍द्र महाप्रभु के तृतीय पुत्र थे। ये अपनी सरस वन-विहार की भावनाओं में तल्‍लीन हुए श्रीवन की बीहड़ वनस्‍थली में पड़े रहते थे। इनका सरस हृदय कवित्‍व शक्ति से पूर्ण था। ये मेधावी, सुशील और नम्र थे। बाल्‍यकाल में ही इन्‍होंने विद्याध्‍ययन किया, फिर जीवनभर उसकी सरस साधना में लगे रहे।

श्रीराधा जी का दर्शन

ध्रुवदास जी के मन में युगल-किशोर की ललित क्रीड़ाओं के वर्णन करने की बड़ी अभिलाषा थी, किंतु संतों के संकोच और अपने प्रभु के भय से वे ऐसा कर नहीं पाते थे। एक बार चरित्र-लेखन की उत्‍कट लालसा ने इन्‍हें विवश कर दिया, जिससे ये वृन्दावन गोविन्‍दघाट के महारासमण्‍डल पर श्रीप्रिया जी की आज्ञा प्राप्‍त करने के लिये जा पड़े। लगातार तीन दिन, तीन रात बिना अन्‍न-जल लिये पड़े रहे। इनकी इस रुचि और लगन से प्रसन्‍न होकर प्रेम-मूर्ति स्‍वामिनी श्रीराधा ने चौथे दिन अर्ध-रात्रि को दर्शन दिया और इनके सिर पर अपने सुकोमल चरणों का स्‍पर्श कराके आशीष और आज्ञा दी कि- "तुम हमारी ललित क्रीड़ाओं का वर्णन करो। तुम्‍हारे द्वारा वर्णन किये गये लीला-चरित्र प्रेमी रसिक संतों को सुखदायी ही होंगे।"

ग्रंथ लेखन

श्रीस्‍वामिनी जी की आज्ञा पाकर प्रसन्‍न मन से श्रीहित ध्रुवदास जी ने युगलकिशोर श्रीराधा-वल्‍लभलाल की ललित केलिकलाओं का वर्णन किया। इन्‍होंने बयालीस ग्रन्‍थों में युगलकिशोर के रस, भाव, लीला, स्‍वरूप, तत्‍व, धाम, केलि आदि अनेक विषयों का वर्णन किया है। इन सब ग्रन्‍थों का संकलित रूप ‘बयालीस-लीला’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्‍थावली का प्रचार श्रीध्रुवदास जी के जीवन काल में ही दूर-दूर तक हो गया था।

नम्र और सहिष्‍णु

श्रीहित ध्रुवदास जी की वृन्दावन धाम में अनन्‍य निष्‍ठा थी। ये जीवन भर श्रीवन को छोड़कर अन्‍यत्र कहीं गये ही नहीं। नम्र और सहिष्‍णु तो इतने थे कि यदि कोई गलत बात कहकर भी इन्‍हें कुछ अनुचित कह देता, तो भी ये उसका और उसकी बात का कोई प्रतीकार न करते, सब सह लेते थे। इनके जीवन की कई घटनाएं इसकी साक्षी हैं।

सदेह लीन

अन्‍त में लगभग संवत 1700 विक्रमी (1643 ई.) के समीप आप श्रीवन गोविन्‍दघाट रासमण्‍डल पर श्रीहितहरिवंशचन्‍द्र महाप्रभु के समाधि-स्‍थल के पास एक तमाल के तरु में सदेह लीन हो गये। वह तमाल आज भी तीन सौ वर्षों के बाद महात्‍मा श्रीहित ध्रुवदास जी की पावन स्‍मृति करा रहा है।

"बलि जाऊँ देस कुल धामकी जहँ ध्रुवदास सो औतर्यौ।"[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • [लेखक- चश्मा वाले बाबा]
  1. -चाचा हित वृन्‍दावनदास

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः