धन्य कान्ह धति धनि ब्रज आए।
आजु सबनि धरि कै यह खातौ, धनि तुम हमहिं बचाए।।
यह ऐसौ तुम अतिहिं तनक से कैसैं भुजनि फिरायौ।
पलकहिं माँझ सबनि कैं देखत, मारयौ, धरनि गिरायौ।।
अब लौं हम तुमकौं नहिं जान्यौ, तुमहिं जगत-प्रतिपालक।
सूरदास-प्रभु असुर-निकंदन, ब्रज-जन के दुख-घालक।।1388।।