धनुषसाला चले नंदलाला -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू


धनुषसाला चले नंदलाला।
सखा लिए संग प्रभु रंग नाना करत, देव नर कोउ न लखि सतत खयाला।।
नृपति के रजत सौ भेट मग में भई, कह्यौ दै बसन हम पहिरि जाही।
बसन ये नृपति के जासु की प्रजा तुम, ये बचन कहत मन डरत नाही।।
एक ही मुष्टिका प्रान ताके गए, लए सब बसन कछु सखाने दीन्हे।
आइ दरजी गयौ बोलि ताकौ लयौ, सुभग अँग साजि उन विनय कीन्हे।।
पुनि सुदामा कह्यौ गेह मम अति निकट, कृपा करि तहाँ हरि चरन धारे।
धोइ पद कमल पुनि हार आगै धरे, भक्ति दै, तासु सब काज सारे।।
लिए चंदन बहुरि आनि कुबिजा मिली, स्याम अँग लेप कीन्हौ बनाई।
रीझि तिहि रूप दियौ, अंग सूधौ कियौ, बचन सुभ भाषि निज गृह पठाई।।
पुनि गए तहाँ जहँ धनुष, बोले सुभट, हौस जनि मन करौ वनबिहारी।
'सूर' प्रभु छुवत धनु टूटि धरनी परयौ, सोर सुनि कंस भयौ भ्रमित भारी।।3047।।

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