धनि यह बृंदाबन की रेनु।
नंद-किसोर चरावत गैयां, मुखहि बजावत बेनु।
मन-मोहन कौ ध्यान घरैं जिय, अति सुख पावत चैनु।
चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु।
इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजबासिनि कैं ऐनु।
सूरदास ह्याँ की सरवरि नहिं, कल्पबृच्छ सुर-धैनु।।491।।