धनि बृषभानुसुता बड़ भागिनि।
कहा निहारति अंग-अंग-छवि, धन्य स्याम अनुरागिनि।।
और त्रिया नखसिख सिंगार सजि, तेरै सहज न पूरै।
रति, रंभा, उरबसी, रमा सी तोहिं निरखि मन झूरै।।
ये सब कत सुहागिनि नाहीं, तू है कंत पियारी।
'सूर' धन्य तेरी सुंदरता, तोसी और न नारी।।2444।।