द्वै लोचन साबित नहिं तेऊ।
बिनु देखै कल परति नहीं छिनु, एते पर कीन्ही यह टेऊ।।
बार बार छवि देख्यौइ चाहत, साथी निमिष मिले हैं येऊ।
ते तौ ओट करत छिनहीं छिनु, देखत ही भरि आवत द्वेऊ।।
कैसै मैं उनकौ पहचानौ, नैन बिना लखियै क्यो भेऊ।
ये तौ निमिष परत भरि आवत, निठुर बिधाता दीन्हे जेऊ।।
कहा भई जौ मिली स्याम सौ, तु जानै, जाने सब कोऊ।
‘सूर’ स्याम कौ नाम स्रवन सुनि, दरसन नीकै देत न वेऊ।।1850।।