द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान

महाभारत द्रोण पर्व मेंं जयद्रथवध पर्व के अंतर्गत 151वें अध्याय मेंं द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान करने का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है-[1]

संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर देना

धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! समरांगण में सव्यसाची अर्जुन के द्वारा सिंधुराज जयद्रथ के तथा सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा के मारे जाने पर उस समय तुम लोगों के मन की कैसी अवस्था हुई ? संजय! दुर्योधन ने जब कौरव-सभा में द्रोणाचार्य से वैसी बातें कहीं, तब उन्होंने उसे क्या उतर दिया ? यह मुझे बताओ।

संजय ने कहा- भारत! सिंधुराज जयद्रथ तथा भूरिश्रवा को मारा गया देखकर आपकी सेनाओं में महान आर्तनाद होने लगा। वे सब लोग आपके पुत्र दुर्योधन की उस सारी मन्त्रणा का अनादर करने लगे, जिससे सैकड़ों क्षत्रिय-शिरोमणि काल के गाल में चले गये। आपके पुत्र के कटु वचन सुनकर द्रोणाचार्य मन ही मन दुखी हो उठे। उन्होंने दो घड़ी तक कुछ सोच विचार कर अत्यन्त आर्तभाव से इस प्रकार कहा।

द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर देना

द्रोणाचार्य बोले- दुर्योधन! तुम क्यों इस प्रकार अपने वचनरूपी बाणों से मुझे छेद रहे हो ? मैं तो सदा से ही कहता आया हूँ कि सव्यसाची अर्जुन युद्ध में अजेय है। कुरुनन्दन! अर्जुन को तो केवल इसी बात से समझ लेना चाहिये था कि उनके द्वारा सुरक्षित होकर शिखण्डी ने भी युद्ध के मैदान में भीष्म को मार डाला। जो देवताओं और दानवों के लिये भी अवध्य थे, उन्हें युद्ध में मारा गया देख मैंने उसी समय यह जान लिया कि यह कौरव सेना अब नहीं रह सकेगी। हम लोग जिन्हें तीनो लोको के पुरुषों में सबसे अधिक शूरवीर मानते थे, उन शौर्य सम्पन्न भीष्म के मारे जाने पर हम दूसरों का क्या भरोसा करें? द्यूतक्रीड़ा के समय विदुर जी ने तुमसे कहा था कि ‘तात! कौरव-सभा में शकुनि जिन पासों को फेंक रहा हैं, उन्हें पासे न समझो, वे किसी दिन शत्रुओं को संताप देने वाले तीखे बाण बन सकते हैं’। परंतु वत्स! उस समय विदुर जी की कही हुई बातों को तुमने कुछ नहीं समझा। तात! वे ही पासे ये अर्जुन के चलाये हुए बाण बनकर हमें मार रहे हैं। दुर्योधन! विदुर जी वीर हैं, महात्मा पुरुष हैं। उन्होंने तुम्हारे कल्याण के लिये जो मंगलकारक वचन कहे थे और जिन्हें तुमने विजय के उल्लास में अनसुना कर दिया था, उनके उन वचनों के अनादर से ही तुम्हारे लिये यह घोर महासंहार प्राप्त हुआ है। जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रों के हितकर वचन की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करता है, वह थोडे़ ही समय में शोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है। इसके सिवा तुमने हम लोगों के सामने ही जो द्रौपदी को सभा में बुलाकर अपमानित किया, वह अपमान उसके योग्य नहीं था। वह उत्‍तम कुल में उत्पन्न हुई हैं और सम्पूर्ण धर्मों का निरन्तर पालन करती है।

गान्धारीनन्दन! द्रौपदी के अपमानरूपी तुम्हारे अधर्म का ही यह महान फल प्राप्त हुआ है कि तुम्हारे दल का विनाश हो रहा है। यदि यहाँ यह फल नहीं मिलता तो परलोक में तुम्हें उस पाप का इससे भी अधिक दण्ड भोगना पड़ता। इतना ही नहीं, तुमने पाण्डवों को जुए में बेईमानी से जीतकर और मृगचर्ममय वस्त्र पहनाकर उन्हें वनवास दे दिया (इस अधर्म का भी फल तुम्हें भोगना पड़ता है)। पाण्डव मेरे पुत्र के समान हैं और वे सदा धर्म का आचरण करते रहते हैं। संसार मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य हैं, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे। तुमने राजा धृतराष्ट्र की सम्मति से कौरवों की सभा में शकुनि के साथ बैठकर पाण्डवों का यह क्रोध मोल लिया है। इस कार्य में दुःशासन ने तुम्हारा साथ दिया है, कर्ण से भी उस क्रोध को बढ़ावा मिला है और विदुर जी के उपदेश की अवहेलना करके तुमने बारंबार पाण्डवों के उस क्रोध को बढ़ने का अवसर दिया है।[1]

द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन को उपालबल्भ देना

तुम सब लोगों ने बड़ी सावधानी से अर्जुन को घेर लिया था। फिर सब के सब पराजित कैसे हो गये ? तुमने सिंधुराज को आश्रय दिया था। फिर तुम्हारे बीच में वह कैसे मारा गया? कुरुनन्दन! तुम और कर्ण तो नहीं मर गये थे, कृपाचार्य, शल्य और अश्वत्‍थामा तो जीवित थे; फिर तुम्हारे रहते सिंधुराज की मृत्यु क्यों हुई? युद्ध करते हुए समस्त राजा सिंधुराज की रक्षा के लिये प्रचण्ड तेज का आश्रय लिये हुए थे। फिर वह आप लोगों के बीच में कैसे मारा गया? दुर्योधन! राजा जयद्रथ विषेशतः मुझ पर और तुम पर ही अर्जुन से अपनी जीवन-रक्षा का भरोसा किये बैठा था। तो भी जब अर्जुन से उसकी रक्षा न की जा सकी, तब मुझे अब अपने जीवन की रक्षा के लिये भी कोई स्थान दिखायी नहीं देता। मैं धृष्टद्युम्न और शिखण्डी सहित समस्त पांचालो का वध न करके अपने- आपको धृष्टद्युम्न के पापपूर्ण संकल्प में डूबता-सा देख रहा हूँ।[2]

भारत! ऐसी दशा में तुम स्वयं सिंधुराज की रक्षा में असमर्थ होकर मुझे अपने वाग्बाणों से क्यों छेद रहे हो ? मैं तो स्वयं ही संतृप्त हो रहा हूँ। अनायास ही महान कर्म करने वाले सत्यप्रतिज्ञ भीष्म के सुवर्णमय ध्वज को अब युद्धस्थल में फहराता न देखकर भी तुम विजय की आशा कैसे करते हो? जहाँ बड़े-बड़े़ महारथियों के बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहाँ तुम किसके बचने की आशा करते हो? पृथ्वीपते! दुर्धर्ष वीर कृपाचार्य यदि जीवित हैं, यदि सिंधुराज के पथ पर नहीं गये हैं तो मैं उनके बल और सौभाग्य की प्रशंसा करता हूँ। कुरुनन्दन! नरेश! जिन्हें इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता भी युद्ध में नहीं मार सकते थे, दुष्कर कर्म करने वाले उन्हीं भीष्म को जब से मैंने तुम्हारे छोटे भाई दुःशासन के देखते देखते मारा गया देखा हैं, तब से मैं यही सोचता हूँ कि अब यह पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में नहीं रह सकती। भारत! वह देखो, पाण्डवों और सृंजयों की सेनाएं एक साथ मिलकर इस समय मुझ पर चढ़ी आ रही हैं।

द्रोणाचार्य का युद्ध के लिये जाना

दुर्योधन! अब मैं समस्त पाण्चालों को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूंगा। मैं समरांगण में यही कार्य करूंगा, जिससे तुम्हारा हित हो। राजन! तुम मेरे पुत्र अश्वत्थामा से जाकर कहना कि वह युद्ध में अपने जीवन की रक्षा करते हुए जैसे भी हो, सोमकों को जीवित न छोड़े’। यह भी कहना कि ’पिता ने जो तुम्हें उपदेश दिया है, उसका पालन करो। दया, दम, सत्य और सरलता आदि सद्गुणों में स्थिर रहो। ’तुम धर्म, अर्थ और काम के साधन में कुशल हो। अतः धर्म और अर्थ को पीड़ा ने देते हुए बारंबार धर्म प्रधान कर्मो का ही अनुष्ठान करो। ’विनयपूर्ण दृष्टि और श्रद्धायुक्त हदय से ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना, यथाशक्ति उनका आदर-सत्कार करते रहना। कभी उनका अप्रिय न करना; क्योंकि वे अग्नि की ज्वाला के समान तेजस्वी होते हैं’। राजन! शत्रुसूदन! अब मैं तुम्हारे वाग्बाणों से पीड़ित हो महान युद्ध के लिये शत्रुओं की सेना में प्रवेश करता हूँ। दुर्योधन! यदि तुममें शक्ति हो तो सेना की रक्षा करना; क्योंकि इस समय क्रोध में भरे हुए कौरव और सृंजय रात्रि में भी युद्ध करेंगें। जैसे सूर्य नक्षत्रों के तेज हर लेते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियों-के तेज का अपहरण करते हुए आचार्य द्रोण दुर्योधन से पूर्वोक्त बातें कहकर पाण्डवों और सृंजयों से युद्ध करने के लिये चल दिये।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 151 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 151 श्लोक 21-41

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के अपमानित होने का कारण | वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा | अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप | अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | अर्जुन का अद्भुत पराक्रम | अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध | अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद | कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय | अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बधाई देना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास जाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को अर्जुन की विजय का समाचार सुनाना | युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन | दुर्योधन का व्याकुल होकर द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुन: युद्ध का आरम्भ
घटोत्कचवध पर्व
कौरव-पांडव सेना का युद्ध | दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय | रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध | भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध | सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय | द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम | घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध | अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार | अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध | सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत | कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना | कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान | अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना | पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम | अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध | अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध | अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम | भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध | दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश | कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय | सात्यकि द्वारा भूरि का वध | घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन | कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय | शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय | अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन | शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय | वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय | प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध | नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय | शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध | सात्यकि और कर्ण का युद्ध | कर्ण की दुर्योधन को सलाह | शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण | सात्यकि से दुर्योधन की पराजय | अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय | धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय | दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध | अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण | कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय | कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट | श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना | घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध | घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन | कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम | अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन | भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप | कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध | घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता | श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना | कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन | धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर | युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना | उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना | दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर | पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध | धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध | युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन | नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय | दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध | कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध | द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण | दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध | कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण | द्रोणाचार्य का घोर कर्म | ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश | अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा | द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध | सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा | उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध | द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना | कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना | धृतराष्ट्र का प्रश्न | अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य | कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना | अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन | भीमसेन के वीरोचित उद्गार | धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन | सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना | भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग | नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद | श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा | भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण | श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना | अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना | अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय | सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना | सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध | अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध | भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता | व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना | व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना | द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल

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