दोन-नाथ अब बारि तुम्‍हारी -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग कान्‍हरौ




दोन-नाथ अब बारि तुम्‍हारी।
पतित उधारन बिरद जानि कै, बिगरी लेहु सँवारी।
बालापन खेलत ही खोयौ, जुवा विषय-रस मात्‍ैं।
वृद्ध भए सुधि प्रगटी मोकों, दुखित पुकारत तातैं।
सुतनि तज्‍यौ, तिय तज्‍यौ, भ्रात तज्‍यौ, तन तै त्‍वच भई न्‍यारी।
स्‍त्रवन न सुनत, चरन-गति थाकी, नैन भए जलधारी।
पलित केस, कफ कंठ विरुंध्‍यौ, कल न परति दिन-रती।
माया-मोह न छाँडै़ तृष्‍ना, ये दोऊ दुख-थाती।
अब यह विथा दूरि करबे कौं और न समरथ कोई।
सूरदास-प्रभु करुना-सागर, तुमतैं होइ सो होई।।।118।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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