दिव्य प्रेम 8

दिव्य प्रेम


गीता के अन्तिम अध्याय का नाम ‘मोक्षसंन्यास योग’ है। ‘मोक्षसंन्यास’ का यह अर्थ किया जाय कि इसमें ‘मोक्ष के भी परित्याग’ का विषय है। वही तो ‘शरणागति’ है। यह तो मानना ही चाहिये कि जिस अर्जुन को भगवान ने रणांगण में प्रत्यक्ष समझाकर गीता का उपदेश किया, जिसको अपना अत्यन्त प्रिय, इष्ट और अधिकारी बताया, जिसके हित के लिये ही उपदेश किया-

‘इष्टोऽसि में दृढामिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।’

उस अर्जुन ने गीता को जितना अच्छा समझा है, उतना और किसने समझा होगा? अर्जुन का जीवन गीता के अनुसार जितना बना होगा, उतना और किसका बनेगा, अर्जुन तो स्वीकार करता है कि ‘मेरा मोह नष्ट हो गया और मैं आपके वचनों का पालन करूँगा।’ और यहीं पर गीता समाप्त हो जाती है। इस प्रकार गीता का अर्थ समझने वाले की जो गति हुई होगी, वही गीता-वक्ता के उपदेश का फल होना चाहिये। अब महाभारत में देखिये अर्जुन को ‘सायुज्य मोक्ष’ की प्राप्ति हुई या और कुछ मिला। महाभारत, स्वर्गारोहणपर्व में कथा है-

देवताओं, ऋषियों और मरुद्गणों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनते हुए महाराज युधिष्ठिर भगवान के दिव्य धाम में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपना बाह्यविग्रह धारण किये विराजमान हैं। उनका स्वरूप पूर्व देखे हुए विग्रह के ही सदृश है, अतः वे भली-भाँति पहचानने में आ रहे हैं। उनके दिव्य श्रीविग्रह से दिव्य ज्योति फैल रही है। उनके सुदर्शन चक्र आदि आयुध देवताओं के शरीर धारण किये हुए उनकी सेवा में लगे हैं। वहीं अत्यन्त तेजस्वी वीरवर अर्जुन भी भगवान की सेवा में संलग्न है। देवपूजित भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी युधिष्ठिर को आये देख उनका यथारीति सत्कार किया।.........

इससे समझमें आ जाना चाहिये कि अर्जुन को ‘सायुज्य मोक्ष’ नहीं मिला। उन्हें भगवान की ‘प्रेमसेवा’ प्राप्त हुई। शरणागति से अर्जुन का मोह नष्ट हो गया- ‘नष्टो मोहः।’ अतएव संसार से मुक्ति होने का काम तो हो ही गया। बन्धन रह गया केवल भगवान की प्रेम-सेवा का, जो शरणागत अर्जुन और गीता का स्वयं भगवान श्रीकृष्ण दोनों को ही इष्ट है। अर्जुन से भगवान ने मानो कह दिया- ‘तुम्हारा मोह नष्ट हो गया। तुम मेरे सेवक थे, सेवक ही रहोगे। मोहवश कह रहे थे- ‘मैं यह नहीं करूँगा’, ‘यह करूँगा; अब तुम मेरे वचनों का ही अनुसरण करोगे। बस, काम हो गया। तुम मेरे चिर सेवक ही रहो। तुम्हें मोक्ष से क्या मतलब।’ यही मोक्ष-संन्यास है। प्रेमी मोक्ष का भी संन्यास कर देता है- यह अभिप्राय है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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