दिव्य प्रेम 6

दिव्य प्रेम


यों प्रेमास्पद के सुख का जीवन जिनका बन जाता है, उनको प्रेमास्पद प्रभु के मन की बात खोजनी नहीं पड़ती। वह उसके सामने स्वयं प्रकट रहती है। प्रेमास्पद का मन उस प्रेमी के मन में आ विराजता है। इसीलिये भगवान ने अर्जुन से श्रीगोपसुन्दरियों के सम्बन्ध में कहा है-

मन्माहात्म्यं मत्सपर्यां मच्छ्रद्धां मन्मनोगतम्।
जानन्ति गोपिकाः पार्थ नान्ये जानन्ति तत्त्वतः।।

‘मेरी महिमा, मेरी सेवा का स्वरूप, मेरी श्रद्धा का स्वरूप तथा मेरे मन की बात तत्त्व से केवल गोपिकाएँ ही जानती हैं। हे अर्जुन! दूसरा कोई नहीं जानता।’ इसलिये गोपी को यह पता नहीं लगाना पड़ता कि भगवान किस बात से प्रसन्न होंगे। उनके अंदर भगवान का मन ही काम करता है। भगवान ने स्वयं श्रीउद्धव जी से कहा है-

‘ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः।’[1]


‘वे मेरे मन वाली हैं, मेरे प्राण वाली हैं, मेरे लिये अपने दैहिक वस्तुओं तथा कार्यों का सर्वथा परित्याग कर चुकी हैं।’ श्रीकृष्ण ही गोपियों के मन हैं। श्रीकृष्ण ही उनके प्राण हैं। उनके सारे संकल्प तथा सारे कार्य श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ या श्रीकृष्ण-सुखार्थ ही होते हैं। प्रेम की बड़ी ही विचित्र गति होती है। वह महागम्भीर है और महाचंचल है। प्रेमी में प्रेम का अगाध समुद्र प्रशान्तभाव से स्थिर हो जाता है, परंतु जैसे पूर्ण चन्द्रमा को देखकर महासमुद्र नाचने लगता है, उसी प्रकार प्रेमास्पद भगवान के प्रसन्न श्रीमुख को देखकर उनके सुखार्थ उस प्रेम-महासागर में लहरें-तरंगें उठने लगती हैं। ये तरंगें ही प्रेमलीला हैं।

गोपियों के जीवन में इन प्रेम-तरंगों के अतिरिक्त अन्य कोई भी क्रिया नहीं है। प्रेम की ही ये उच्छ्वसित ऊर्मियाँ हैं जो नाच-नाचकर प्रेमसुधा का अधिकाधिक मधुर रसास्वादन कराया करती हैं। ये तरंगें कभी अत्यन्त उत्ताल हो जाती हैं, कभी मृदु बन जाती हैं, कभी बहुत ऊपर उछलती हैं, कभी मन्द-मन्द उठती-बैठती हैं; कभी सीधी होती हैं, कभी दायें-बायें हो जाती हैं। प्रेम में दो तरह के भाव होते हैं- दक्षिण और वाम। दक्षिणभाव से भी और वामभाव से भी परस्पर प्रेम-लीलाएँ चलती रहती हैं। जहाँ प्रेमानन्दमयी श्रीराधारानी या गोपांगनाओं का वामभाव होता है, वहाँ प्रियतम श्यामसुन्दर उन्हें मनाया करते हैं और जहाँ प्रेमधन श्रीश्यामसुन्दर का वामभाव होता है, वहाँ श्रीराधारानी या श्रीगोपांगनाएँ उन्हें मनाया करती हैं। मधुर मनोहर प्रेमसमुद्र के ‘विरह तट’ पर कभी ‘विप्रलम्भ’ रस का आस्वादन होता है तो कभी ‘मिलनतट’ पर ‘सम्भोग’ रस का आस्वादन होता है। फिर कभी मिलन में ही विरह की स्फूर्ति हो जाया करती है-


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।46।4

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