दिव्य प्रेम 5

दिव्य प्रेम


जहाँ स्वसुख की वान्छा है, वस्तु अपने लिये है, वहीं वह ‘भोग’ है। वही वस्तु भगवान के समर्पित हो गयी तो ‘सेवा’ है। ‘स्व-सुख-वान्छा’ को लेकर हम जो कुछ भी करते हैं, सब भोग है, उसी काम को भगवत समर्पित करके हम सुखी होते हैं तो वह प्रेम है। घर की कोई चीज, मन की कोई चीज, जीवन की कोई चीज जब तक ‘स्वसुख’ के लिये है तब तक ‘भोग’ है और जब तक भोग है, जब उनका इन्द्रियों के साथ भोग्य-सम्बन्ध है, तब तक उनसे दुःख उत्पन्न होता रहेगा। भगवान ने स्वयं कहा है-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।[1]

‘जो भी संस्पर्शज भोग हैं, वे सभी दुःख की उत्पत्ति के क्षेत्र हैं और आदि-अन्त वाले हैं, इसलिये भैया अर्जुन! बुद्धिमान लोग उनमें प्रीति नहीं रखते।’ पर ये ही सब भोग जब स्वसुख की इच्छा का परित्याग करके परसुखार्थ भगवदर्पित हो जाते हैं तो इन्हीं को ‘भगवान की सेवा’ कहा जाता है। यही प्रेम है। गोपीप्रेम इसीसे स्व-सुख-वान्छा से सर्वथा रहित परम उज्ज्वल है। यहाँ पूर्ण समर्पण हो चुकने पर भी नित्य समर्पण की लीला चलती रहती है। प्रतिक्षण समर्पण होता रहता है। यों समर्पण होते-होते समर्पण-क्रिया भी विस्मृत होने लगती है और फिर ‘ग्रहण’ भी समर्पणरूप, त्यागरूप बन जाता है, क्योंकि इसमें भी प्रियतम के सुख की ही निर्मल वान्छा रहती है।

पर इस ‘ग्रहण’ में प्रेम की पहचान बहुत कठिन है हम हलवा खा रहे हैं, हमें उसके मिठास का स्वाद आ रहा है तथा हमें सुख मिल रहा है। यह हलवा खाना तथा उसमें मिठास तथा सुख की अनुभूति-स्वसुख के लिये हो रही है या प्रेमास्पद के सुख के लिये इसका परीक्षण बहुत कठिन है। इसका यथार्थ स्वरूप वही जानते हैं, जो प्रेम के इस स्तर तक पहुँच गये हैं। प्रेमी को स्वाद आ रहा है पर स्वाद के सुख का ग्रहण वह तभी करता है, जबकि उससे प्राणधन प्रेमास्पद श्यामसुन्दर को सुख होता हो। स्वाद प्रेमी को आता है, परंतु यदि प्रेमास्पद को उसमें सुख नहीं है तो वह स्वाद कभी प्रेमी को इष्ट नहीं है। हलवे की मिठास लेते-लेते यह मालूम हो जाय कि प्रेमास्पद चाहते थे कि तुम मीठा हलवा न खाकर कडुवा नीम खाते तो तुरंत हलुवा उसके लिये कड़वा हो जायगा, बुरी चीज बन जायगा ओर वह नीम खाने लगेगा। यहीं पता लगता है कि ‘ग्रहण’ स्वसुख की वान्छा से था या प्रेमास्पद के सुख के लिये। यही बात कपड़े पहनने, सोने, जागने, जगत के सारे व्यवहार करने में है। प्रत्येक क्रिया में प्रेमास्पद का सुख ही एकमात्र इष्ट होना चाहिये। प्रेमी को यह पता लग जाय कि प्रेमास्पद हमारे मरण में प्रसन्न है तो प्रेमी के लिये एक क्षण भी जीवन-धारण करना परम दुःखरूप हो जायगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 5:22

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