दिव्य प्रेम 4

दिव्य प्रेम


प्रेम भगवान का स्वरूप ही है। प्रेम न हो तो रूखे-सूखे भगवान भाव-जगत की वस्तु रहें ही नहीं। आनन्दस्वरूप यदि आनन्द के इस प्रकार आनन्दरस का आस्वादन न करें, उनकी आनन्दमयी आह्लादिनी शक्ति उन्हें आनन्दित करने में प्रवृत्त न हो तो केवल स्वरूपभूत आनन्द बड़ा रूखा रह जाता है। उसमें रस नहीं रहता। इसलिये वे स्वयं अपने ही आनन्द का अनुभव करने के लिये अपनी ही स्वरूपभूता आनन्दरूपा शक्ति को प्रकट करके उसके साथ आनन्द-रसमयी लीला करते हैं। यह आनन्द बनता नहीं। पहले नहीं था, अब बना, सो बात नहीं है। प्रेम नित्य, आनन्द नित्य दोनों ही भगवत्स्वरूप। आनन्द की भित्ति प्रेम और प्रेम का विलक्षण रूप आनन्द। इस प्रेम का कोई निर्माण नहीं करता। जहाँ त्याग होता है, वहीं इस का प्राकट्य-उदय हो जाता है। जहाँ त्याग, वहाँ प्रेम; और जहाँ प्रेम, वहीं आनन्द। कहीं भी द्वेष से, वैर से आनन्द का उदय हुआ हो तो बताइये? असम्भव है। भगवान प्रेमानन्दस्वरूप हैं। अतएव भगवान की यह प्रेमलीला अनादिकाल से अनन्तकाल तक चलती ही रहती है। न इसमें विराम होता है, न कभी कमी ही आती है। इसका स्वभाव ही वर्धनशील है।

समस्त जगत के जीव-जीवन में भी आंशिकरूप में विभिन्न प्रकार से प्रेम की ही लीला चलती है। माता-पिता के हृदय का वात्सल्य-स्नेह, पत्नी-पति का माधुर्य, मित्र का पवित्र सख्यत्व, पुत्र की मातृ-पितृ-भक्ति, गुरु का स्नेह, शिष्य की गुरु-भक्ति इस प्रकार विभिन्न विचित्र धाराओं में प्रेम का ही प्रवाह बह रहा है। यह प्रेम त्याग से ही विकसित होता और फूलता-फलता है। जगत में यदि यह प्रवाह सूख जाय, संतान को मात-पिता का वात्सल्य न मिले, पति-पत्नी का माधुर्य मिट जाय, मित्र-बन्धुओं के सखाभाव का नाश हो जाय गुरु-शिष्य की स्नेह भक्ति न रहे और माता-पिता को पुत्र की विशुद्ध श्रद्धा-सेवा न मिले तो जगत भयानक हो जाय। कदाचित ध्वंस हो जाय या फिर जगत क्रूर राक्षसों की ताण्डवस्थली बन जाय! अतएव त्यागमय प्रेम की बड़ी आवश्यकता है। यही प्रेम जब सब जगह से सिमटकर एक भगवान में लग जाता है, तब वह परम दिव्य हो जाता है। इसी एकान्त विशुद्ध प्रेम की निर्मल मूर्ति है। गोपी और उस प्रेम के पुन्जीभूत रूप ही हैं- श्यामसुन्दर- ‘पुन्जीभूतं प्रेमगोपांगनानाम्’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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