दिव्य प्रेम 3

दिव्य प्रेम


प्राणप्रियतम भगवान श्यामसुन्दर का सुख ही गोपी का जीवन है। इसे चाहे ‘प्रेम’ कहें या ‘काम’ यह ‘काम’ परम त्यागमय सहज प्रेष्ठसुखरूप होने से परम आदरणीय है। मुनिमनोऽभिलषित है। ‘काम’ नाम से डरने की आवश्यकता नहीं है। ‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ’भगवान ने धर्म से अविरुद्ध काम को अपना स्वरूप बतलाया है। भगवान ने स्वयं कामना की- ‘मैं एक से बहुत हो जाऊँ, ‘एकोऽहं बहु स्याम्’। इसी प्रकार ‘रमण’ शब्द भी भयानक नहीं है। भगवान ने एक से बहुत होने की कामना क्यों की? इसीलिये कि अकेले में ‘रमण’ नहीं होता- ‘एकाकी न रमते’। यहाँ भी ‘काम’ और ‘रमण’ शब्द का अर्थ गन्दा कदापि नहीं है, इन्द्रिय भोगपरक नहीं है। मोक्ष की कामना वाले को ‘मोक्षकामी’ कहते हैं। इससे वह ‘कामी’ थोड़े ही हो जाता है। इसी प्रकार गोपियों का ‘काम’ है एकमात्र ‘श्रीकृष्णसुखकाम’ और यह काम उनका सहजस्वरूप हो गया है। इसलिये यह प्रश्न ही नहीं आता कि गोपियाँ कहीं यह चाहें कि हमारे इस ‘काम’ का कभी किसी काल में भी नाश हो। यह काम ही उनका गोपीस्वरूप है। इसका नाश चाहने पर तो गोपी गोपी ही नहीं रह जाती। वह अत्यन्त नीचे स्तर पर आ जाती है, जो कभी सम्भव नहीं है।

गोपी की बुद्धि, उसका मन, उसका चित्त, उसका अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियाँ प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के सहज साधन हैं; न उसमें कर्तव्यनिष्ठा है, न अकर्तव्य का बोध; न ज्ञान है न अज्ञान; न वैराग्य है न राग; न कोई कामना है न वासना बस, श्रीकृष्ण के सुख के साधन बने रहना ही उसका स्वभाव है। यही कारण है कि परम निष्काम, आत्मकाम, पूर्णकाम, अकाम आनन्दघन श्रीकृष्ण गोपी-प्रेमामृत का रसास्वादन कर आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं। जो आनन्द के नित्य आकर हैं, आनन्द के अगाध समुद्र हैं, आनन्दस्वरूप हैं; जिनसे सारा आनन्द निकलता है, जो आनन्द के मूल स्त्रोत हैं, जिनके आनन्द-सीकर को लेकर ही जगत में सब प्रकार के आनन्दों का उदय होता है, उन भगवान में आनन्द की चाह कैसी? यह बात दार्शनिक की कल्पना में नहीं आ सकती। परंतु प्रेमराज्य की बात ही कुछ विलक्षण है। यहाँ आनन्दमय में ही आनन्द की चाह है। इसी से भगवान श्यामसुन्दर प्रेमियों के प्रेमरस का आस्वादन करने के लिये व्याकुल हैं। यशोदा मैया का स्तनपान करने के लिये भूखे गोपाल रोते हैं; गोप सखाओं और बछड़ों के खो जाने पर कातर हुए कन्हैया उन्हें वन-वन ढूँढ़ते-फिरते हैं, व्रजसुन्दरियों का मन हरण करके उन्हें अपने पास बुलाने के लिये गोपीजनवल्लभ उनके नाम ले-लेकर मधुर मुरली की तान छेड़ते हैं। प्रेम में यही विलक्षण महामहिम मधुरिमा है।


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