दिव्य प्रेम 2

दिव्य प्रेम


वे रासपंचाध्यायी के गोपीगीत में गाती हैं-

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिभ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।[1]

‘तुम्हारे चरण कमल से भी अधिक कोमल हैं। उन्हें हम अपने कठोर उरोजों पर भी बहुत-ही डरते-डरते धीरे से रखती हैं कि कहीं उनमें चोट न लग जाय। उन्हीं कोमल चरणों से तुम रात्रि के समय घोर अरण्य में घूम रहे हो, यहाँ के नुकीले कंकड़-पत्थरों आदि के आघात से क्या उन चरणों में पीड़ा नहीं होती? हमें तो इस विचारमात्र से ही चक्कर आ रहा है। हमारी चेतना लुप्त हुई जा रही है। प्राणप्रियतम श्यामसुन्दर! हमारा जीवन तो तुम्हारे लिये ही है। हम तुम्हारी ही हैं।’ अतः इस प्रेमराज्य में किसी भी प्रकार से निज सुख की कोई भी वान्छा नहीं होती। इसी से इसमें ‘सर्वत्याग’ है, त्याग की पराकाष्ठा है। ‘प्रेम’ शब्द बड़ा मधुर है और प्रेम का यथार्थ स्वरूप भी समस्त मधुरों में परम मधुरतम है। परंतु त्यागमय होने से यह पहले है- बड़ा ही कटु, बड़ा ही तीखा। अपने को सर्वथा खो देना है- तभी इसकी कटुता और तीक्ष्णता महान सुधामाधुरी में परिणत होती है। गोपी में वस्तुतः निज सुख की कल्पना ही नहीं है, फिर अनुसंधान तो कहाँ से होता? उसके शरीर, मन, वचन की सारी चेष्टाएँ और सारे संकल्प अपने प्राणाराम श्रीश्यामसुन्दर के सुख के लिये ही होते हैं, इसलिये उसमें चेष्टा नहीं करनी पड़ती। यह प्रेम न तो साधन है, न अस्वाभाविक चेष्टा है, न इसमें कोई परिश्रम है। प्रेमास्पद का सुख ही प्रेमी का स्वभाव है, स्वरूप है। ‘हमारे इस कार्य से प्रेमास्पद सुखी होंगे’। यह विचार उसे त्याग में प्रवृत्त नहीं करता। सर्वसमर्पित जीवन होने से उसका त्याग सहज होता है। अभिप्राय यह कि उसमें श्रीकृष्णसुखकाम स्वाभाविक है, कर्तव्यबुद्धि से नहीं है। उसका यह ‘श्रीकृष्णसुखकाम’ उसका स्वरूपभूत लक्षण है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।31।19

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