दिव्य प्रेम 11

दिव्य प्रेम


विक्षेप-दोष नष्ट हो जाता है भगवान में मन लगाने से। वहाँ चंचल मन अचंचल हो जाता है। रह जाता है आवरण-दोष। यह बड़ा व्यवधान बना रहता है। ज्ञान के साधकों का यह दोष ज्ञानी पुरुषों के द्वारा किये हुए महान अनुग्रहपूर्ण तत्त्वोपदेश से दूर होता है और प्रेमी भक्तों के इस दोष को भगवान स्वयं दूर कर देते हैं। वे अपने हाथों ‘आवरण भंग’ कर देते हैं, पर्दा फाड़ डालते हैं। यही गोपियों का चीरहरण है। जिस प्रेम में भय, लज्जा, संकोच तथा जरा भी व्यवधान नहीं है, ऐसा स्त्री-पुरुष का पति-पत्नी का प्रेम हम जगत में देखते हैं। वहाँ कुछ भी ऐसी वस्तु नहीं रहती जिसे गोपनीय कहा जा सकता है। यही प्रेम जब दिव्य भाव बनकर भगवान में आ जाता है तथा पति-पत्नी के लौकिक सम्बन्ध से रहित, असम्बन्ध नित्य ‘दिव्य सम्बन्धरूप’ हो जाता है। तब वहाँ कुछ भी गोपनीय नहीं रहता। तमाम आवरणों का विनाश हो जाता है। यौनभाव तो वहाँ रहता ही नहीं। यही भगवान तथा भक्त का अनावरण मिलन है। यहाँ माया का आवरण हट गया। पृथक्ता का पर्दा फट गया। चीरहरण तथा रासलीला का अर्थ है- अनावृत (योगमाया के पर्दे से मुक्त) भगवान और अनावृत[1] गोपांगनाओं का महामिलन। जीव और परमात्मा का, भक्त और भगवान का घुल-मिल जाना एक हो जाना।


यही दिव्य भगवत्प्रेम है। इस प्रेम राज्य में जिनका प्रवेश है, उनकी चरणरज भी परम पावनी है। ज्ञानिशिरोमणि उद्धव जी मोक्ष न चाहकर ऐसी प्रेमवती गोपियों की चरणधूलि प्राप्त करने के लिये व्रज में लता-गुल्म-ओषधि बनना चाहते हैं, औरों की तो बात ही क्या भगवान स्वयं भी उनके चरणधूलि कण से अपने को पवित्र करने के लिये उनके पीछे-पीछे सदा घूमा करते हैं-

‘अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः।।’

‘उसके पीछे-पीछे मैं सदा इस विचार से चला करता हूँ कि उसके चरणों की धूलि उड़कर मुझ पर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।’

प्रानधन सुंदर स्याम सुजान!
छटपटात तुम बिना दिवस-निसि मेरे दुखिया प्रान।।
बिदरत हियौ दरस बिनु छन-छन, दुस्सह दुखमय जीवन।
अमिलन के अति घोर दाह तैं दहत देह-इंद्रिय-मन।।
कलपत-विलपत ही दिन बीतत, निसा नींद नहिं आवै।
सुपन-दरसहू भयो असंभव, कैसें मन सचु पावै।।
अब जनि बेर करौ मन-मोहन! दया नैक हि धारौ।
सरस सुधामय दरसन दै निज, उर की अगिनि निवारौ।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहंता-ममता-आसक्तिरूप माया के पर्दे से सर्वथा मुक्त

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