दानव वृषपर्वा बल भारी3 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग भैरो
देवयानी-ययाति-विवाह


दं‍पति भोग करत सुख पाए। सुक्र सुता पुनि द्वै सुत जाए।
कह्यौ स्त्रमिष्ठा अवसर पाइ। रति कौ दान देहु मोहिं राइ।
नृप ताहू सौं कीन्यौ भोग। तीनि पुत्र भए विधि संजोग।
सुक्र-सुता तिन पुत्रनि देखि। मन मैं कीन्यौ क्रोध बिसेषि।
कह्यौ, सरमिष्ठा सुत कहँ पाए? उन कह्यौ, रिषि-किरपा तै जाए।
वहुरि कह्यौ, रिषि कौ कहि नाम? कहयौ स्वन देख्यौ अभिराम।
पुनि पुत्रनि उन पूछयौ जाइ। पिता-नाम मोहिं कहौ वुझाइ।
बडै़ पुत्र भाष्यौ यौं ताहि। नृपति जजाति पिता मम आहि।
सुनि नृप सौं कियौ जुद्ध बनाइ। वहुरि सुक्र संती कह्यौ जाइ।
पाछि तैं जजातिहूँ आयौ। रिषि तासौं यह बचन सुनायौ।
तैं जोवन मद तैं यह कीन्यौ। तातैं साप तोहिं मैं दीन्यौ।
जरा अबहिं तोहि ब्यापै आइ। बिरध भयौ तव कह्यौ सिर नाइ।
रिषि, तुम तो सराप मोहिं दयौ। पूरनकाम नाहिं मैं भयौ।
तातैं जो मोहिं आज्ञा होइ। आयसु मानि करौं अब सोइ।
कह्यौ जरा तेरी सुत लेइ। अपनौ तरुनापौ तोहिं देइ।
भोगि मनोरथ तब तू पावै। मेरौ वचन बृथा नहिं जावै।
बडे़ पुत्र जदु सौं कह्यौ आइ। उन कह्यौ, वृदध भयौ नहिं जाइ।
नृप कह्यौ, तोहिं राज नहिं हाइ। वृद्धपनौ लै राजा सोइ।
औरनिहूँ सौं नृप जब भाष्यौ। नृपति बचन काहूँ नहिं राख्यौ।
लघु सुत नृपति-बुढ़ापौ लयौ। अपनौ तरुनापौ तिहिं दयौ।
बरष सहस्र भोग नृप किये। संतोष न आयो हिये।
कह्यौ, विषय तैं तृप्ति न होइ। भोग करौ कितनौ किन कोइ।
तब तरुनापौ सुत कौं दीन्हौ। बृद्धपनौ अपनौ फिरि लीन्हौ।
वन मैं करी तपस्या जाइ। रह्यौ हरि-चरननि सौं चित लाइ।
या विधि नृपति कृतारथ भयौ। सो राजा मैं तुमसौं कह्यौ।
सुक ज्यौं नृप कौं कहि समुझायौ। सूरदास त्यौं ही कहि गायौ॥174॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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