दानव वृषपर्वा बल भारी2 -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग भैरो
देवयानी-ययाति-विवाह


या विधि कहि, करि क्रोध अपार। दीन्यौ ताहि कूप मैं डार।
नृपति जजाति अचानक आयौ। सुक्र-सुता कौ दरसन पायौ।
दियौ तब बसन अपनौ डारि। हाथ पकरि कै लियौ निकारि।
बहुरि नृ‍पति निज गेह सिधायौ। सुता सुक्र सौं जाइ सुनायौ।
सुक्र क्रोध करि नगरहिं त्याग्यौ। असुर नृपति सुनि रिषि-सँग लाग्यौ।
जब बहु भाँति बिनय नृप करी। तब रिषि यह बाती उच्चरी।
मम कन्या प्रसन्न ज्यौं होइ। करौ असुर-पति अब तुम सोइ।
सुक्र-सुता सौं कह्यौ तिन आइ। आज्ञा होइ सो करौं उपाइ।
जो तुम कहौ करौं अब सोइ। तव पुत्री मम दासी होइ।
नृप पुत्री दासी करि ठई। दासी सहस ताहि सँग दई।
सो सब ताकी सेवा करैं। दासी भाव हृदय मैं धरै।
इक दिन सुक्र-सुता मन आई। देखौं जाइ फूल फुलवाई।
लै दासिनि फुलवारी गई। पुहुप-सेज रचि सोवत भई।
असुर-सुता तिहिं व्यजन डुलावै। सोवत सेज सो अति सुख पादै।
तिहिं अवसर जजाति नृप आयौ। सुक्र-सुता तिहिं वचन सुनायौ।
नृप मम पानि-ग्रहन तुम करौ। सुक्र-संकोच हृदय मति धरौ।
कच कौं प्रथम दियौ मैं साप। उनहूँ मोहिं दियौ करि दाप।
ताकौं कोउ न सकै मिटाइ। तात ब्याँह करौ तुम राइ।
नृप कह्यौ कहौ सुक्र सौं जाइ। करिहौं जो कहिहैं रिषिराइ।
तब तिनि कहयौ सुक्र सौं जाइ। कियौ ब्याह रिषि नृपति वुलाइ।
असुर सुता ताकैं सँग दई। दासी सहस ताहि सँग भई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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