दर-दर भटक, नीच मैं -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

अभिलाषा

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राग मालगुञ्ज - ताल कहरवा


 
दर-दर भटक, नीच मैं, पटक-पटक कर सिर, हो निपट निराश।
धक्कों से घबराकर, अब आया चरणों में करने वास॥
कितनी चोटें सहीं, गड़े कितने पग कंकड़-काँटे-शूल।
मूर्ख कष्ट केशों में खोया जीवन, तुम्हें भुला सुखमूल॥
होकर विमुख दया सागर से, दुर्गन्धित जालों के बीच।
पड़ा सड़ रहा भाग्यहीन मैं फिर-‌अपराधी पामर नीच॥
रहा अभी तक वञ्चित मैं इन पावन चरणों से मति हीन।
वञ्चित हो अब सब अग-जग से हो असहाय अन्त में दीन।
आ पहुँचा मैं दुखी आर्त अति दीनबन्धु के निर्भय द्वार।
चरण-शरण दो निज स्वभाववश सहज मुझे, हे करुणागार॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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