दयारामभाई

दयारामभाई
दयारामभाई
पूरा नाम दयारामभाई
जन्म संवत 1833 (1776 ई.)
जन्म भूमि डभोई, गुजरात
मृत्यु संवत 1901 (1844 ई.)
मृत्यु स्थान डभोई, गुजरात
अभिभावक पिता- प्रभुराम भट्ट, माता- महालक्ष्मी अथवा राजकोर
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ 'अद्भुतमंजरी'
भाषा गुजराती
प्रसिद्धि कृष्ण भक्त कवि
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी जगत, जीव, अन्तर्यामी अक्षर आदि का निमित्त और उपादान शुद्ध निगरुण ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ही एक हैं। इसी सिद्धांत को अपनाकर दयाराम भाई ने अपनी रचनाओं द्वारा श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति की।

दयारामभाई भगवान श्रीकृष्ण के प्रसिद्ध भक्त कवियों में से एक थे। संत दयारामभाई परम भागवत संत थे। उनकी भक्ति रचनाएं गुजराती साहित्य की अक्षय-निधि हैं। दयारामभाई की भक्ति पुष्टिमार्गीय थी। 'पुष्टिमार्ग' के अनुसार जगत सत्य है। जगत, जीव, अन्तर्यामी अक्षर आदि का निमित्त और उपादान शुद्ध निगरुण ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ही एक हैं। इसी सिद्धांत को अपनाकर दयाराम भाई ने अपनी रचनाओं द्वारा श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति की।

जन्म

प्रसिद्ध भक्तरत्न गुजरात के महाकवि दयारामभाई का जन्म संवत 1833 को भाद्रपद शुक्ला द्वादशी (वामन द्वादशी) को डभोई में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रभुराम भट्ट और माता का नाम महालक्ष्मी अथवा राजकोर था। माता-पिता के गोलोकवासी हो जाने के कारण दयारामभाई ननिहाल में रहते थे।

कृष्ण गुणगान

दयारामभाई के भावुक हृदय को जाग्रत करने वाले थे- भगवद्भक्त श्रीइच्छाराम भट्ट। भट्टजी के समागम से दयारामभाई का आभ्यन्तरिक जीवन आश्चर्यजनक रीति से पलट गया। भट्टजी का उपदेश प्राप्त कर दयारामभाई ने अपना जीवन श्रीकृष्ण के गुणगान में ही लगा दिया और गोस्वामी श्रीवल्लभलालजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की। विवाह के लिये कहने पर उन्होंने बिलकुल इन्कार कर दिया और कहा कि "मेरा विवाह तो श्रीकृष्णचन्द्र के साथ हो चुका, अब मुझे किसी और विवाह की आवश्यकता नहीं है।"

एक बरयो गोपीजनवल्लभ, नहिं स्वामी बीजो। नहिं स्वामी बीजो रे मारे, नहिं स्वामी बीजो॥

साहित्यिक रचना

रसीले दयारामभाई युगल सरकार के दर्शनार्थ वृन्दावन (मथुरा) पहुँचे। तीन दिन अनशन करके रहे। चौथे दिन श्रीजीसहित भगवान श्रीकृष्ण ने दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ किया और अपनी प्रेमलक्षणा भक्ति दी। अपने इन अद्भुत अनुभवों का वर्णन दयारामभाई ने ‘अद्भुतमंजरी’ नामक ग्रन्थ में किया है। इस मंजरी में भगवान की विविध लीलाओं के दर्शन होते हैं, जिन्हें पढ़ते-पढ़ते हृदय द्रवित हो जाता है। दयारामभाई ने ग्यारह भाषाओं में साहित्यिक रचना की। परंतु उनकी समस्त रचनाएं राधेश्याम के गुणानुवाद से ही भरी हैं। दयारामभाई की गरबियों ने गुजरात के घर-घर में अपना स्थान कर रखा है। जब तक गुजरात और गुजराती भाषा तथा गुजराती साहित्य में गरबी साहित्य को स्थान रहेगा, तब तक दयारामभाई का नाम अमर रहेगा।

मृत्यु

संवत 1901 में माघ वदी पंचमी के दिन रसिक भक्त-शिरोमणि दयारामभाई ने डभोई में ही नश्वर शरीर को छोड़कर गोलोक के लिये प्रयाण किया। भगवत्प्राप्ति के समय उनके शिष्य उनकी आज्ञानुसार- "मारा अंत समे अलबेला मुजने मूकशो मा। दरशन दो नी रे दास ने मारा गुणनिधि गिरधरलाल॥" आदि प्रेम भरे पद गा रहे थे।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जोशी श्रीजीवनलाल छगनलालजी

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