थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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विरह निवेदन

राग प्रभाती


थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ,
मैं हाजिर नाजिर कबकी खड़ी ।।टेक।।
साजनियाँ[1] दुसमण होय बैठया[2] सबने लगूँ कड़ी ।
तुम बिन साजन[3] कोइ नहीं है, डिगी नाव मेरी समँद अड़ी ।
दिन नहिं चैन रैण नहिं निंदरा, सूखूँ खड़ी खड़ी ।
वाण विरह का लग्‍या हिये में, भूलूँ न एक घड़ी ।
पत्‍थर की तो अहिल्‍या तारी, बन के बीच पड़ी ।
कहा बोझ मीराँ में कहिये, सौ पर[4] एक घड़ी[5] ।।119।।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साऊ थे
  2. लागे
  3. साऊ
  4. ऊपर
  5. इसके आगे कहीं ये पंक्तियां भी आती हैं:--
    गुरु रैदास मिले मोहिं पूरे, धुर से कलम भिड़ी ।
    सतगुरु सैन दई जब आके, जोत में जोत रली ।
  6. पलक उघाड़ो = आँखें खोलो, मेरी ओर देखो। हाजिर नाज़िर = आँखों के सामने। कदकी = कभी से, देर से। साजनियाँ = स्वजन, सगे। दुसमण = दुश्मन, बैरी। सबने = सभी को। कड़ली लगूँ = अप्रिय जान पड़ती हूँ। डिगी = चल कर। हुई अड़ी = रुक गई। सौ.. घड़ी = सौके सामने वा मुकाबले एक पसेरी।

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