तुम हरि साँकरे कै साथी।
सुनत पुकार, परम आतुर ह्वै, दौरि छुड़ायौ हाथी।
गभँ परीच्छित रच्छा कीन्हीं, वेद-उपनिषद साखी।
बसन बढ़ाइ द्रुपद-तनया को सभा माँझ पति राखी।
राज-रवनि गाई ब्याकुल ह्वै, दै दै तिनकौं धीरको।
मागध हति राजा सब छोरे, ऐसे प्रभु पर-पीर को।
कपट रूप निसिचर तन धरिकै अमृत पियौ गुन मानी।
कठिन परैं ताहू मैं प्रगटे, ऐसे प्रभु सुख-दानी।
ऐसो कहौं कहाँ लगि गुन-गन लिखत अंत नहिं लहिऐ।
कृपासिंधु उनहीं के लखै मम लज्जा निरबहिऐ।
सूर तुम्हारी आसा निबहै, संकट मैं तुम साथै।
ज्यौं जानौ त्यौं करौ, दीन की बात सकल तुव हाथै।।112।।
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