तुम लोगों से हु‌आ न होगा -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग शिवरंजनी - ताल कहरवा


तुम लोगों से हु‌आ, न होगा कभी प्रेमदेवियों! वियोग।
दिव्य नित्यलीला में रहता है अविछिन्न नित्य संयोग॥
जैसे रहता छिपा सूर्य कुहरे में होता नहीं प्रकाश।
वैसे ही वियोग-क्रन्दनमें रहता छिपा नित्य मैं पास॥
होता मैं उस काल देखकर मुग्ध तुम्हारे भाव अनन्य।
विरह-दुःख अति स्मृति-सुख युगपत दिव्य देख कह उठता धन्य॥
जगत, जगतके सुख, इन्द्रिय, इन्द्रियके सभी अर्थका त्याग।
मन-मति इह-पर भूल विरह-कातर होती, मन भर अनुराग॥
अमिलनमें तुम देख वदन-विधु यों बन जाती चारु चकोर।
हो प्रमुदित उन्मत्त नृत्य करने लगता तब मानस-मोर॥
बनकर मैं मन-बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय, सब अर्थ तुम्हारे आप।
बनता फिर उनका अनन्य आश्रय मैं, करता नित्य मिलाप॥
नव किशोर नटवर मुरलीधर मोर-पिच्छ-सिर मोहन रूप।
प्रियतम सदा तुहारा नित-नव-वर्धन प्रेमानन्द अनूप॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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