तुम जु कहत हरि हृदय रहत है।
कैसे होइ प्रताति मधुप सुनि, ये इतनी जु सहत है।।
वासर रैनि कठिन विरहागिनि, अंतर प्रान दहत है।।
प्रजरि प्रजरि मनु निकसि धूम अनि, नैननि नीर बहत है।।
कठिन अवज्ञा होति देह दुख, मरजादा न गहत है।
कहि अब क्यौ माने मन 'सूरज' ये बातै जु कहत है।।3789।।