तुम जानकी, जनकपुर जाहु।
कहा आनि हम संग भरमिहौ, गहवर बन डुख-सिंघु अथाहु।
तजि वह जनक-राज भोजन-सुख, कत तृन-तलप, बिपिन फल खाहु।
ग्रीषम कमल-बदन कुम्हिलैहै, तजि सर निकट दूरि कित न्हाहु।
जनि कछु प्रिया, सोच मन करिहौ, मातु-पिता-परिजन-सुख लाहु।
तुम घर रहौ सीख मेरी सुनि, नातरु बन बसिकै पछिताहु।
हौं पुनि मानि कर्म कृत रेखा, करिहों तात-बचन-निरबाहु।
सूर सत्य जो पतिव्रत राखौ, चलौ संग जनि, उतहीं जाहु॥34॥