तुम्ह कहि आवत ऊधौ बात।
या ब्रज मैं कोउ जानत नाहीं, जोग कथा उत्पात।।
हम तौ जोग जुगुति जिय सीखी, स्यौ सिंगार अरविंद।
तातै जीवन मुक्त भई हम, भेंटति है गोविंद।।
जोगी जरै मरै उटि सीसी, निरगुन क्यौ ठहरात।
तातै सगुन सरूप सिंधु तजि, दृग भरमन नहिं जात।।
निरगुन सगुन ‘सूर’ प्रभु आगै, जाइ मधुपुरी भाषि।
जोई भलौ सोइ ब्रज पैहौ, तुम्हैं हमारी साखि।।3689।।