तुम्हरी बलैया लागै नागर।
पहिली रीति भाँति गोकुल की, लिखिहु न पठवत कागर।।
अबनि लोक त्रैलोक जानियत, सुनियत हौ सुखसागर।
आपुन गुप्त ओट ह्वै रहिऐ, हम छाँड़ी ज्यौ बागर।।
पति पितु मातु सकल बंधू जन, सब तजि हम भइँ दागर।
‘सूरज’ स्याम तृषा न बुझाई, हा ब्रज रीती छागर।। 156 ।।