तुम्हरी गति न कछु कहि जाइ।
दीनानाथ, कृपाल, परम सुजान जादौराइ।
कहत पठवन बदरिका मोहिं गूढ़ ज्ञान सिखाइ।
सकुचि साहस करन मन मैं, चलत परत न पाइ।
पिनाकहु़ के दंड लौं तन, लहत बल सतराइ।
कहा करौं चित चरन अटक्यौं, सुधा-रस कैं चाइ।
मेरी है इहिं देह कौ हरि, कठिन सकल उपाइ।
सूर सुनत न गयौ तबहीं खंड-खंड नसाइ।।3।।