तुमही धन तुमही मन मेरे -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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राग बिहाग़रौ
श्रीकृष्ण का अंतर्धान होना




तुमही धन तुमही मन मेरे।
तुमही प्रान अधार स्याम घन तुम बिनु दुतिया और न हेरे।।
कान्ह मन बच तुम्है चाहौ करौ नाहीं मान।
सुन्यौ चाहौ सदा स्रवननि मधुर मुरली तान।
कुज कुंजनि फिरति फेरति तुम गुननि की माल।
‘सूर’ के प्रभु बेगि मिलि कै हरौ सब जंजाल।। 51 ।।

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